Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 106
________________ आप्तवाणी-१ १८९ १९० आप्तवाणी-१ मिटती है। ऐसा कब संभव है? जब ज्ञानी पुरुष की भेंट हो और आपको निष्पक्ष बनाएँ तब। आपके खुद के प्रति भी निष्पक्षता उत्पन्न हो, तब ही कार्य सिद्ध होता है। जब तक ज्ञानी पुरुष स्वरूप का भान नहीं करवाते, तब तक निष्पक्षता उत्पन्न नहीं होती। 'ज्ञान' किसी की भूल नहीं निकालता, बुद्धि सभी की भूलें निकालती है, सगे भाई की भी भूल निकालती है। प्रश्नकर्ता : दादाजी, व्यवहार में बड़ा, छोटे की भूल निकालता है, छोटा, अपने से छोटे की भूल निकालता है, व्यू पोइन्ट के टकराव के कारण, तो ऐसा क्यों होता हैं? दादाश्री : यह तो ऐसा है न कि बड़ा छोटे को खा जाता है। बड़ा छोटे की भूल निकाले, उसके बजाय हम कह दें, 'मेरी ही भूल।' यदि भूल हमारे सिर पर ले लें, तो उसका हल निकल आए। हम क्या करते हैं? दूसरा यदि सहन नहीं कर सके, तो हम अपने सिर ले लेते हैं, औरों की भूल नहीं निकालते। क्यों किसी को देने जाएँ? हमारे पास तो सागर समान पेट है। देखिए न, इस मुंबई की सभी गटरों का पानी सागर अपने में समा लेता है न? वैसे ही हमें भी पी लेना है। इससे क्या होगा कि इन बच्चों पर, और सब पर प्रभाव पड़ेगा। वे भी सीखेंगे। बच्चे भी समझ जाएँगे कि इनका पेट सागर समान है। इसलिए जितना आए उतना जमा कर लो। व्यवहार का नियम है कि अपमान करनेवाला खुद की शक्ति देकर जाता है। इसलिए अपमान स्वीकार कर लो हँसते-हँसते। एक आँख हाथ से दब गई हो तो चंद्र दो दिखाई देते हैं न? उसमें भूल किस की? ऐसा संसार के लोगों का है। हर मिनट पर, समय-समय पर भूल करते हैं। निरंतर 'पर' समय में होते हैं। परायों हेतु ('स्व' हेतु नहीं) समय बिताते हैं। खुद के लिए एक भी समय निकाला नहीं है। 'खुद' को पहचाने नहीं वह सब 'परसमय'। खुद को पहचानने के बाद 'स्वसमय'। लोगों की दृष्टि दोषी हो गई है, इसलिए सामनेवाले के दोष देखते हैं, और खुद के नहीं देखते। हमें तो पहले दृष्टि निर्दोष कर देनी है। निर्दोष हुए और निर्दोष देखा। आपको कोई दोषी नहीं दिखता, तो आप मुक्त हुए। लोग खुद की भूलों से बंधे हैं। फ़ौजदारी भूल की हो, तो फ़ौजदार के बंधन में। कोई मनुष्य खुद की भूल नहीं देख सकता। सभी करम, करम गाते हैं मगर करम क्या है, उसका आपको भान ही नहीं है। खुद के करम अर्थात निजदोष। आत्मा निर्दोष है, पर निज दोष को लेकर बंधन में है। जितने दोष दिखें. उतना मक्ति का अनुभव होता है। कुछ दोष की तो लाखों परतें होती हैं, अत: लाखलाख बार देखें, तो निकलते जाते हैं। दोष तो मन-वचन-काया में भरे हुए ही है। मन-वचन-काया के दोष तो प्रतिक्षण दिखने चाहिए। इस दूषमकाल में, बिना दोष की काया होती ही नहीं। जितने दोष दिखे, उतनी किरणें (ज्ञान-जागृति) बढ़ी। इस काल में, यह अक्रम ज्ञान तो गज़ब का प्राप्त हुआ है। आपको केवल जागृति रखकर भरे हुए माल को खाली करना है, धोते रहना है। जागृति तो निरंतर रहनी चाहिए। यह तो दिन में आत्मा को बोरी में बंद रखते हैं, यह कैसे चलेगा? दोष देखते और धोते जाने से बढ़ सकते हैं, प्रगति होती है। वर्ना आज्ञा में रहने से लाभ तो है, उस से आत्मा का रक्षण होता है। जागृति के लिए सत्संग और पुरुषार्थ चाहिए। सत्संग में रहने के लिए पहले आज्ञा में रहना चाहिए। नाटक में होनेवाला घाटा असर नहीं करता, तो समझना कि आखिरी नाटकीय जन्म शेष रहा। नाटक में गाली सुना दे, पर असर नहीं करे वह देखना है। बिना हिसाब के तो कोई बुरा भी नहीं बोलता और अच्छा भी नहीं

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