Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 132
________________ आप्तवाणी-१ २४१ २४२ आप्तवाणी-१ कालीमिर्चवाले को कालीमिर्च और इलायचीवाले को इलायची मिल जाती है, बैंगनवाले को बैंगन और चाय पीता हो, उसे चाय मिल जाती है और यदि सूंठवाली चाय प्रकृति में रही, तो सूंठवाली चाय भी उसे मिल जाती है। पर जो क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, वे दखल करते हैं। लोभ संग्रह करना सिखाता है। ऊपर से, उसके लिए कपट करते हैं और भयंकर दखल कर बैठते हैं। मगर किसी प्रकार की दखल ज़रूरी नहीं है। प्रकृति के अनुसार, अंदर की डिमान्ड के अनुसार, सबकुछ आपको मिले ऐसा है। इन लोगों को विचार आता है कि कल सूर्यनारायण नहीं निकले, तो क्या होगा? मुए, यह सभी तेरे लिए है, तझे भोगना आना चाहए। ये सूर्य, चंद्र, तारे, हवा, पानी सबकुछ तेरे लिए ही है। प्रकृति के अनुसार दस दिन के लिए हिल स्टेशन जाना हुआ हो, तो मन में होता है कि दस दिन और रहने को मिलता, तो अच्छा होता और अन्यत्र दो दिन भी ज्यादा ठहरना पसंद नहीं आता। यह खाते हैं, पीते हैं, वह सब प्रकृति के अनुसार ही मिलता है। हाँ, जितना लोभ में हो, उतना नहीं भी मिलता। यह त्याग करते हैं, उपवास करते हैं, वह भी प्रकृति के अनुसार ही होता है, पर अहंकार करता है कि मैंने किया। त्याग हुआ, वह भी प्रकृति के अनुसार और त्याग नहीं हुआ, वह भी प्रकृति के अनुसार। बड़ौदा में एक सेठ थे। उनकी पत्नी बहुत किच-किच किया करती थी। घर में पाँच-छ: बच्चे, खातापीता घर था, पर पत्नी बहुत तेज़ थी। इसलिए सेठ तंग आ गए। उन्होंने सोचा, "इस से तो साधु हो जाना अच्छा, लोग 'बापजी, बापजी' तो करेंगे कम से कम।" अत: सेठ तो चुपचाप भाग खड़े हुए और साधु बन गए। पर पत्नी बड़ी होशियार निकली, सेठ को खोज निकाला उसने तो और ठेठ दिल्ली के उपाश्रय में अचानक जा पहुँची, जहाँ वे रहते थे। वहाँ महाराज का व्याख्यान चल रहा था। सेठ भी सिर मुंडवाकर साधवेष में बैठे थे। सेठानी ने तो वहीं पर ही सेठ को डाँटना शरू कर दिया, 'अरे, आपने मेरे साथ यह कैसा व्यापार शुरू किया है? घर पर छ: बच्चे मेरे सिर पर डालकर कायरों की तरह क्यों भाग खड़े हुए? उनकी पढ़ाई, शादी कौन करवाएगा? उसने तो सेठ का हाथ पकड़ा और लगी घसीटने। सेठ समझ गए कि ज्यादा खींचा-तानी करूँगा तो नाहक बदनामी होगी। उन्होंने कहा, 'जरा ठहर! कपड़े तो बदल लेने दे!' इस पर सेठानी बोली, 'नहीं, ऐसे अब आपको खिसकने नहीं दूंगी, इन्हीं कपड़ों में घर चलिए। घर से भागते हुए शरम नहीं आई थी?' उपाश्रय के महाराज भी समझ गए और इशारे से जाने को समझाया। सेठानी तो उसी वेष में सेठ को घर ले आई वापस। प्रकृति में त्याग नहीं था, इसलिए सेठ को वापस लौटना पड़ा। एक महाराज बहुत वृद्ध हो गए थे। घूमना-फिरना बंद हो गया। कोई चाकरी करनेवाला नहीं था। इसलिए महाराज को घर याद आया। बेचारे जैसे-तैसे करके किसी की मदद से घर पहुँचे। आखिरी समय में बीवी-बच्चे चाकरी करेंगे, इसी आशा से ही तो न! पर बीवी-बच्चों ने घर में रखने से साफ इनकार कर दिया। प्रकृति में त्याग था, तो वही सामने आया उनके। ऐसा विचित्र है प्रकृति का कामकाज़। पर प्रकृति है क्या? यदि वह कोई वस्तु होती, तो हम उसका नाम गंगाबहन रखते। पर नहीं, प्रकृति यानी 'सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' यह तो प्रकृति नचाती है वैसे नाचता है और कहता है, 'मैं नाचा, मैंने त्याग किया' प्रकृति में त्याग हो, तो हो सकता है। वर्ना बीवी आकर उठा ले जाती है अंत में! प्रकृति का अंत आए, ऐसा नहीं है। यदि खुद पुरुष हो जाए, तो प्रकृति, प्रकृति का काम करे और पुरुष, पुरुष के भाग में रहे। पुरुष अर्थात् परमात्मा। जब तक परमात्मा नहीं हुआ हो, तब तक प्रकृति नचाए वैसे नाचता है। सभी ग्रंथों ने पुरुष का, आत्मा का ज्ञान जानने को कहा, पर प्रकृति को जानने का किसी ने नहीं कहा। अरे! पर-कृति जान तब आत्मा को जान सकेगा। यदि तेल और पानी एक हो गए हों, तो पानी को जान और अलग कर। तब तू तेल को जान सकेगा। इसलिए हम कहते हैं कि

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