Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 137
________________ आप्तवाणी-१ २५१ २५२ आप्तवाणी-१ यथार्थ प्रकट हो, उसके बाद ही यथार्थ व्यवहार की शुरूआत हुई, ऐसा माना जाता है। ऐसे निश्चय-व्यवहार संबंध में ही, यथार्थ निश्चय से यथार्थ व्यवहार होता है और इसलिए चाहे कोई भी जाति हो. वेष हो. श्रेणि हो या फिर चाहे किसी भी प्रकार की अवस्था हो, परंतु उस प्रत्येक अवसर पर, संयोगों में संपूर्ण, समाधानकारी जागति रहती है अर्थात् असमाधान मात्र से विराम पाना संभव होता है। तात्पर्य यह कि व्यवहार यथार्थ तभी कह सकते हैं जब यथार्थ निश्चय प्रकट हुआ हो। सर्व अवस्थाओं में सर्व समाधान रहे ऐसा 'ज्ञान' है यह। तो श्रद्धा को मदद करनेवाला ज्ञान मिल जाता है और ज्ञान तथा श्रद्धा एक हों, तो चारित्र ऐसा ही हो जाता है। आत्मा वैसा ही हो जाता है। कोई सास अपनी बहू को पागल कहे, पर जब तक बहू को इसमें श्रद्धा नहीं बैठती, तब तक उस पर कोई इफेक्ट (असर) नहीं होता है। चाहे सारी दुनिया उसे पागल कहे, तब भी उस पर सायकोलोजिकल इफेक्ट नहीं होता है। पर यदि उसकी श्रद्धा बदली, तो वह सचमुच पागल हो जाएगी। इसलिए इस दुनिया में कभी किसी का दबाव मत पड़ने देना अपने पर! जैसी-जैसी प्रतिष्ठा तूने की वैसा ही तेरा प्रतिष्ठित आत्मा हो जाता चौरासी लाख योनि-चार गति की भटकन क्यों? है। आत्मा खुद पुद्गल को ऊर्ध्वगामी खींचता है। जब पुदगल का बोझ बढ़ता है, तब पुद्गल आत्मा को अधोगति में ले जाता है। इसलिए अभी कलियुग में तो धर्म ऐसा देना चाहिए कि भैया, हिंसा चोरी आदि के भाव हों, तो उन्हें मिटा देना ताकि अधोगति नहीं हो। पाशवी और राक्षसी विचारों को मिटा देना। यदि ऐसा करेगा, तो आत्मा का तो स्वभाव ही है ऊर्ध्वगामी होना। प्रश्नकर्ता : श्रद्धा और ज्ञान में क्या अंतर है? दादाश्री : श्रद्धा अन्डिसाइडेड ज्ञान है। 'ज्ञान' डिसाइडेड ज्ञान है. मतलब 'अनुभववाला ज्ञान' है। बगीचे में बैठे हों और कुछ आवाज हो, और मैं कहूँ कि कुछ है, आप भी कहें कि कुछ है, यह कौन-सा ज्ञान? उसका नाम 'श्रद्धा' अथवा 'दर्शन'। फिर सब खडे होकर पता लगाते हैं। हाथ फेरकर सब तय करते हैं कि यह तो गाय है वह ज्ञान है। बिलीफ़ यानी दर्शन में कभी रोंग (गलत) भी हो सकता है। सामान्य रूप से जानना, वह 'दर्शन' कहलाता है और विशेष रूप से जानना, वह 'ज्ञान' कहलाता है। इससे गति सीधी होगी। पाशवता और राक्षसी विचार सारा दिन करते ही रहते हैं, इसलिए सारा दिन आत्मा पर आवरण का लेप चढ़ाया ही करते हैं। अपने लाभ के अवसर की ताक में ही रहा करते हैं, यही पाशवता है। जेबकतरे को जेब काटना कैसे आता है? पहले श्रद्धा उत्पन्न होती है और फिर ज्ञान मिलता है, चारित्र अपने आप ही आ जाता है। टेप की आवाज़ जैसे मिटाई जा सकती है, वैसे ही अंदर भी मिटाया जा सके ऐसा है। ग्यारह बजे भोजन से पहले जो विचार आया, उसके प्रकट होने से पहले उसे मिटाया जा सकता है। हम यही कहते हैं कि भाई! उसे मिटा देना। 'ज्ञान ही आत्मा है।' जैसा-जैसा जिसका ज्ञान होता है, वैसा उसका आत्मा होता है। विपरीत ज्ञान हुआ, तो विपरीत आत्मा होता है। जिस ज्ञान पर श्रद्धा होती है, वैसा वह हो जाता है। श्रद्धा बैठी, ज्ञान-दर्शन का फल क्रियामान। लोग उसे चारित्र कहते हैं। सम्यक् अर्थात् यथार्थ, रियल। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन से सम्यक् चारित्र उत्पन्न होता है। जिसमें रियल चारित्र होता है, वह संपूर्ण भगवान ! रियल चारित्र से किसी को भी दु:ख नहीं पहुँचता। बर्ताव, बिलीफ़ (मान्यता) और ज्ञान एक दूसरे पर आधारित हैं।

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