Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 114
________________ आप्तवाणी-१ २०५ २०६ आप्तवाणी-१ क्या करें? स्पंदन ही बंद कर दो। बाप के साथ स्पंदन चालू रखेगा तो चलेगा, पर वाइफ के साथ स्पंदन खड़े हुए बगैर रहते ही नहीं न? जीभ का, वाणी का, गड़बड़-घोटाला क्या है? वह अहंकार है पूर्वजन्म का। उस अहंकार से जीभ चाहे जैसा कह देती है और उसमें स्पंदनों का टकराव खड़ा होता है। आज तो जो भी दुःख हैं, वे अधिकतर जीभ के, वाणी के स्पंदनों के ही हैं। नर्क में जाना पड़ता है और वे भुगतने के बाद हलका होकर, वापस आता है। हलके स्पंदन इकट्ठे किए हों, तो वह देवगति भोगकर वापस आता है। सागर बाधा नहीं डालता, पर हमारे द्वारा डाले गए पत्थरों के स्पंदन (उठनेवाली तरंगे) ही बाधा डालते हैं। यदि सागर की ओर ध्यान नहीं दिया, तो वह शांत ही है और जहाँ-जहाँ गड़बड़ की थी, उसीके ही, सागर के वही स्पंदन बाधक होते हैं। भगवान ने क्या कहा है कि एक समय के लिए भी खुद, खुद का नहीं हुआ है। स्पंदनों में ही सारा समय गुजारता है। वे भी मौजें उछालते हैं और हम भी मौजें उछालते हैं, इसलिए डूबते भी नहीं और तैर भी नहीं पाते। देह के स्पंदन बंधन नहीं करते हैं, पर मन के और वाणी के स्पंदन बंधन करते हैं। इसलिए भगवान ने उन्हें समरंभ, समारंभ और आरंभ के स्पंदन कहे हैं। पहले मन में स्पंदन उठता है। भगवान ने उसे समरंभ कहा है। जैसे चर्चगेट जाने का अंदर पहले विचार आया वह समरंभ। फिर अंदर ही वहाँ जाने की योजना बनाता है और डिसीज़न लेता है, निश्चय करता है और कहता है कि हमें तो चर्चगेट ही जाना है। ऐसे बीज बोया. उसे समारंभ कहा है। फिर वह पूरा निकल पड़ा चर्चगेट जाने के लिए, परा ही वह स्पंदनों की तरंगों में बह गया, उसे आरंभ कहा है। अब समस्या का हल कैसे हो? मन का यदि तिरस्कार हो, तब फिर देख लो उस तिरस्कार के स्पंदन ! त्यागियों का तिरस्कार कठोर होता हैं। वीतराग तो, लाख तिरस्कार मिलें, फिर भी स्पंदन पैदा होने नहीं देते। खोखे (पेकिंग) में कभी स्पंदन पैदा करना ही मत। उनका तो नाश होनेवाला है, फिर चाहे वे हीरे के खोखे हों या मोती के। उनमें स्पंदन पैदा करके क्या मिलनेवाला है? खुद अपने ही मन से फँसा है। ऊपर से शादी की, तो मिश्रचेतन में फँसा। वह भी फिर पराया। यदि बाप के साथ स्पंदन खड़े होते हैं, तो वाइफ के साथ क्या नहीं होंगे? वाइफ तो मिश्रचेतन है. अतः वहाँ इस कलियुग में तो अच्छे कर्म करने का अवसर ही नहीं मिलता और खोटे कर्मों का हिस्सेदार होना पड़ता है। ज्ञान मिलने के बाद महात्माओं को गलत कर्मों में गलत हो रहा है, उस ज्ञान होने के कारण अच्छा नहीं लगता। यानी कि कार्य खोटा हो या खरा, तो भी वह निपटारे की बात हो गई और उतने तक ही स्पंदन खड़े होते हैं, जो शांत हो जानेवाले हैं। पर जिसे यह गलत हो रहा है, ऐसा भी मूढ़ात्म दशा में नहीं लगता है, उससे तो एक्शन यानी कार्य के स्पंदन और अज्ञान वश नये पैदा होते रिएक्शन के भावों के स्पंदन, इस प्रकार दोगुने स्पंदन होते हैं। अज्ञान है, इसलिए स्पंदन कब पैदा हो जाएँगे यह कहा नहीं जा सकता, फिर चाहे वह कोई भी हो, संसारी हो या त्यागी हो। क्योंकि जहाँ अज्ञान है, वहाँ भय बना रहता है और जहाँ भय है, वहाँ स्पंदन अवश्य होंगे। एक चिड़िया शीशे के सामने आकर बैठ जाए, तो शीशा क्या करे उसमें? शीशा तो जैसा था वैसा ही है, पर अपने आप दूसरी चिड़िया अंदर आ पड़ी है। उसीके जैसी आँखे, वैसी ही चोंच दिखती है, और इस कारण उस चिड़िया की मान्यता बदलती है और अपने जैसी ही दूसरी चिड़िया है, ऐसा मान लेती है। इसलिए शीशेवाली चिड़िया को चोंच मारती रहती है। ऐसा है यह सब । स्पंदन से संसार खड़ा हुआ है। बिलीफ़ में जरा-सा बदलाव आया कि वैसा ही दिखाई देता है। फिर जैसी कल्पना करें, वैसा हो जाता है। शीशा तो एक आश्चर्य है। पर लोगों को सहज हो गया है, इसलिए दिखाई नहीं देता। यह तो ऐसा है न कि लोग सारा

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