Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 112
________________ आप्तवाणी-१ २०१ २०२ आप्तवाणी-१ तो जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। आत्मा प्राप्त होने के बाद, आत्मा में स्थित होने के बाद, ऐसी कौन-सी वस्तु है जो हिला सके? इस संसार में ऐसा कौन-सा तत्त्व है कि जो 'आपका खुद का' है, उसे छीन सके? शंका का कीड़ा तो भयंकर रोग है। पता भी नहीं चलता कि कब खड़ी हुई और कितना नुकसान कर गई? एक जन्म की हम गारन्टी देते हैं कि 'व्यवस्थित' के नियम में कोई बदलाव होनेवाला नहीं है, फिर शंका करने का रहा ही कहाँ? बिना ठौर-ठिकाने का संसार कि जहाँ घर से निकला, तो फिर जब वापस घर लौटे तभी सच्चा। ऐसे संसार में कहाँ शंका करनी और कहाँ शंका नहीं करनी? और जो हो रहा है, वह क्या पहले नहीं हुआ था? इसमें नया क्या है? इसकी फिल्म तो पहले उतर ही चुकी है न? फिर उसमें क्या है? किसी के लिए भी शंका करने जैसा नहीं है। वहाँ ये लोग तो मोक्ष की शंका करते हैं, वीतराग पर शंका करते हैं! धर्म के लिए शंका करते हैं! अरे, कहीं का कहीं फिंक जाएगा यदि शंका करी तो! की नींव मज़बूत करते रहते हैं। मताग्रही हो गए हैं, इसलिए अपने ही पक्ष की नींव दिन-रात मज़बूत करने में मनुष्य जन्म व्यर्थ गँवा रहे हैं। अरे! मोक्ष में जाना है या मत में, पक्ष में पड़े रहना है? मोक्ष और पक्ष, दोनों विरोधाभास हैं। पक्षातीत हों, तभी मोक्षमार्ग मिलता है। जहाँ निष्पक्षपात है, वहीं भगवान हैं, वहीं मोक्ष है। मतांध कभी भी 'सत्य वस्तु' को नहीं पा सकता, क्योंकि खुद के मत का ही आग्रही हुआ होता है, इसलिए दूसरे के सत्य को कैसे स्वीकारे? और जिसका आग्रह रखते हैं, वह टेम्परेरी वस्तु का है या परमानेन्ट वस्तु का? चाहते हैं परमानेन्ट वस्तु और आग्रह करते हैं टेम्परेरी वस्तु का। तब फिर आत्मा कहाँ से प्राप्त होगा? सर्व रीति से संपूर्ण निराग्रही होकर, एक मात्र आत्मा जानने का आग्रह करें, तभी आत्मा प्राप्त होगा। सारी कामनाओं को एक ओर रखकर, मात्र 'सत्य' को ही जानने का कामी हो, तब ही 'परम सत्य' की प्राप्ति होगी। अनंत जन्मों का देहाध्यास यदि छूटे, तो ही आत्मा प्राप्त होता है। देहात्म-बुद्धि, आत्मा प्राप्त होने नहीं देती। उलटा दिखाती है, क्योंकि देहात्म बुद्धि संसार का ही रक्षण करती है और संसार में ही भटकाती है। यह देहात्म-बुद्धि तो निरंतर खुद के स्वरूप का ही अहित करती रहती है। कभी भी सीधा नहीं सूझने देती, उलटा ही दिखलाती है। एक बार सीधी राह पर चल पड़ा, तो समस्या का हल निकल ही जाए, ऐसा है। सीधी राह चलना मतलब समकित होना। उलटी राह चलना मतलब देहात्म बुद्धि में रहना और आत्मा में आत्म बुद्धि होना, उसका नाम समकित आत्मा में आत्मरूप अर्थात आत्म स्वरूप होना, उसका नाम ज्ञान। देहात्म बुद्धि को फ्रेक्चर करके, आत्मबुद्धि उत्पन्न हो, तभी मुक्तानंद प्रकट होता है। देहात्म बुद्धि ही देहाध्यास करवाती है। दृष्टिराग मतांध की तुलना में दृष्टिरागी का रोग बहुत भारी है, जो अनंत जन्मों तक नहीं निकलता। जब तक समकित नहीं होता, तब तक अंधश्रद्धा रहती ही है। जिसे मिथ्यात्व होता है. उसे अंधश्रद्धा होती है। भगवान को तो अंधश्रद्धा का जितना एतराज़ नहीं है, उतना इन दृष्टिरागियों का है, ऐसा कहते हैं। दृष्टिरागी अर्थात् क्या? ३६० डिग्रियाँ हैं, व्यू पोइन्ट हैं और उनकी ३६० दृष्टियाँ हैं। उनमें एक-एक दृष्टि पर अनंत दृष्टियाँ हैं। उनमें से किसी एक दृष्टि पर, उस व्यू पोइन्ट पर संपूर्ण राग उत्पन्न हो जाना वह दृष्टिराग है। दृष्टिराग कभी भी नहीं जाता। अनंत जन्मों की भटकन के बाद, जब ज्ञानी पुरुष से भेंट हो, तब उसका दृष्टिराग रूपी रोग अपसेट होता है। मताग्रह दृष्टिरागी के आत्मा के ऊपर आवरण छाया होता है। संसार के रागद्वेष जा सकते हैं, पर दृष्टिराग नहीं जाता। उसका उपाय नहीं है। इस जन्म और अनंत जन्मों में मरे, तब भी यह रोग जाता नहीं, मिटता ही नहीं। कितने लोग तो मत में पड़ गए हैं, पक्ष में पड़ गए हैं, अत: पक्ष

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141