Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 119
________________ आप्तवाणी - १ हैं? स्मृति आती है, वह तो अपने आप निकाल होने के लिए आती है। बंधन को मिटाने आती है। यदि स्मृति आए और आप उसे धो डालें, साफ कर डालें, तो धुलकर विस्मृत हो जाएगी। याद इसलिए ही आता है कि आपका यहाँ लगाव है, उसे मिटा दीजिए, उसका पश्चात्ताप कीजिए और फिर से ऐसा नहीं होगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कीजिए। इतना करने से वह खत्म होती है इसलिए फिर वह विस्मृत हो जाता है। जो ज्ञान जगत् विस्मृत कराए, वह यथार्थ ज्ञान है। विधा भगवान ने कहा था कि असुविधा में सुविधा खोज निकालना । असुविधा में ही सुविधा होती है। परंतु खोजना आए तब न? २१५ सोफ़ा पाँच साल पुराना हो, तो उसके मालिक को वह असुविधाजनक लगने लगता है। ओल्ड टाइप का हो गया है, ऐसा लगता है। यह तो सुविधा में असुविधा पैदा की। आजकल तो ईज़ी चेयर में बैठकर लोग अनईजी रहते हैं। अरे, पूरी जिंदगी में एक ही दिन अनईज़ी होना होता है, पर यह तो सदा ही अनईज़ी रहता है। सारा दिन उलीचता ही रहता है। इस मुंबई में भरपूर सुख पड़ा है, पर यह तो सारा दिन दुःख में ही पड़ा रहता है। असुविधा तो तब कहलाए कि जब नये-नये सोफे के, पाँच ही दिनों में पाये टूट जाएँ। पर यह तो नये सोफे की सुविधा में असुविधा पैदा की। पड़ोसी के घर सोफासेट आया, इस पर पति के साथ छः महीने तक झिकझिक करके, रुपये उधार लेकर पत्नी, नया सोफासेट ले आई। वह जब टूटा, तो उसका जी जल गया। अरे, जी भी कोई जलाने की चीज़ है ? कपड़ा जले, तो हर्ज नहीं पर जी तो जलाना ही नहीं चाहिए। अपने तो कैसा रहना चाहिए कि किसी की नकल नहीं करनी है। कम अक्कलवाले ही नकल करते हैं और दुःखी होते हैं। आजकल कौन सोफासेट नहीं लाता है ? वैसा हम भी ऐसा करें? हमें तो नकल नहीं असल होना चाहिए। घर में बैठक रूम में असल भारतीय बैठक लगाना । गद्दी तकिये आप्तवाणी - १ और स्वच्छ सफेद चद्दर, ताकि फिर किसी की नकल नहीं करनी पड़े और बैठने में भी कैसी सुविधा ! वास्तव में चीजें तो कितनी होनी चाहिए? खाने-पीने की, पहनने की और रहने की सुविधा हो, तो काफ़ी हो गया। जब कि आजकल तो सुविधा के नाम पर नये-नये दुःख खड़े करते हैं। वास्तव में दुःख संसार में नाम मात्र को भी नहीं है। यह तो नासमझी में दुःख पैदा करते हैं। २१६ पड़ोसी आज बुलाए और कल नहीं भी बुलाए । उसमें रोज़-रोज़ बुलाने में क्या सुविधा ? बुलाए, तो लगता है कि उसे मेरी क़ीमत है । इसलिए अच्छा लगता है। नहीं बुलाए, तो बुरा लगता है। ऐसा रखो बुलाए, तो भी अच्छा नहीं बुलाते, तो भी अच्छा। खुद के पास भरपूर सुख पड़ा है, पर कैसे निकालना यह मालूम नहीं है। एक ही तरह का सुख, एक ही तरह का माल है पर यह तो समाज ने स्तर बनाए हैं। वास्तविक क्या है, जानें तो सुख मिले। कब तक इस काल्पनिक सुख में रहेंगे? पर करें क्या? आ फँसे हैं भैया आ फँसे! फिर करें क्या? यह कैसी बात है, मैं आपको बताता हूँ। एक बनियाभाई और एक मियाँभाई में पक्की दोस्ती थी। एकबार मुहर्रम के दिनों में दोनों घूमने निकले। रास्ते में ताज़ियों का जुलूस जा रहा था। बनिया मित्र से दो मिनट में आता हूँ कहकर, मियाँभाई जुलूस में शामिल होकर 'या हुसैन, या हुसैन' करने लगे। बनिये ने तो बहुत राह देखी, पर मियाँभाई तो बाहर आने का नाम ही नहीं लेते थे। वे तो मग्न हो गए थे। आख़िर घंटाभर बितने के बाद बनिया ऊब गया और जुलूस में घुसकर मियाँ का हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा तो मियाँभाई ने उसे ही अंदर खींच लिया कहे, "बस, दो मिनट 'या हुसैन, या हुसैन' कर लेते हैं, हम दोनों फिर निकल जाएँगे।" बनियाभाई मुँह लटकाकर बोले, 'आ फँसे भैया आ फँसे । ' एक बार आ फँसने के बाद निकलना मुश्किल है। वह तो ज्ञानी

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