Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 123
________________ आप्तवाणी-१ २२३ २२४ आप्तवाणी-१ 'मैं करता हूँ' और 'मेरा है', ऐसा प्रवर्तन ही चारित्रमोह है। भगवान कहते हैं, वैसी चारित्र मोह की यथार्थ समझ, समझने योग्य है। 'मैं सामायिक करता हूँ' ऐसा जो भान है वह चारित्र मोह। सामायिक, प्रतिक्रमण या संसार की किसी भी क्रिया में कर्त्ताभाव, वह चारित्रमोह और रुचिभाव वह दर्शनमोह। चारित्रमोह अर्थात् परिणमित हुआ मोह। जो फल देने को सन्मुख हुआ हो, वह चारित्रमोह मतलब डिस्चार्ज मोह । जो मोह चार्ज होता रहे, वह दर्शन मोह और डिस्चार्ज होता रहे, वह चारित्रमोह। डिस्चार्ज मोह भटका देता है। जो चार्ज किया, वह 'प्रोमिसरी नोट' है और जो डिस्चार्ज हुआ, वह 'कैश इन हैन्ड' है। जा, 'हम' तुझे गारन्टी देते हैं कि 'दादा भगवान' के मिलने के बाद तेरा चार्ज नहीं होगा! मोह का स्वरूप मोह के मुख्य दो प्रकार हैं। दर्शन मोह - चार्ज मोह और चारित्र मोह - डिस्चार्ज मोह। दर्शन मोह रुचि पर आधारित है अर्थात् रुचि कहाँ है इस पर आधारित है। संसार की विनाशी चीज़ों मैं ही रुचि रहे, वह मिथ्यात्व मोह है। आत्मा जानने की रुचि और साथ में संसार की विनाशी चीज़ो की रुचि, वह मिश्रमोह है। यह सत्य है और वह भी सत्य है, ऐसा बरते वह मिश्रमोह है। आत्मा जानने की उत्कंठा हो और यही सत्य है, ऐसा बरते वह सम्यक मोह। आत्मा में आत्मबुद्धि होना, उसका नाम समकित. आत्मा में आत्मरूप होना, उसका नाम ज्ञान। ज्ञान और ज्ञानी के प्रति मोह, वह अंतिम मोह है। वह सम्यक् मोह है। अन्य सारे ही मोह मिथ्या मोह हैं। जैसा है वैसा दर्शन में नहीं आता, वह दर्शन मोह के कारण। दर्शन के आवरण के कारण 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा दिखता है। यह संसार किस के आधार पर टिका है? दर्शन मोह के आधार पर। भगवान कहते हैं कि चारित्र मोह का एतराज नहीं है वह डिस्चार्ज मोह है। अज्ञानी का भरा हुआ माल निकलता है, पर फिर से 'मैं चंदूलाल हूँ' कहता है, इसलिए पुनः नया माल भरता रहता है। आत्मा की हाजिरी से पुद्गल में चेतनभाव चार्ज हो जाता है और वही फिर डिस्चार्ज होता है। पुद्गल चेतन के संसर्ग में आने से उसमें चेतन चार्ज होता है, पर उसमें चेतन का कुछ भी बिगड़ता नहीं है। इस शरीर में से डिस्चार्ज होनेवाली प्रत्येक वस्तु अनुभव होती देखने में आती है, इसलिए चार्ज हुआ था, ऐसा कहते हैं। गलन का अर्थ ही डिस्चार्ज है। हम उसे भावाभाव कहते हैं, उसमें चेतन नहीं होता है। एक मनुष्य को सारी जिंदगी जेल में गुजारनी पडे और उसे खाने को मिलता रहे, मगर जलेबी-लङ्क नहीं मिलते, इसलिए क्या उसका मोह चला गया? नहीं, अंदर तो मोह होता ही है। मिलता नहीं है, इसलिए मोह चला गया, ऐसा नहीं कहलाता। प्रश्नकर्ता : दादाजी, मुझमें मोह बहुत होगा और दूसरों में कम होगा, ऐसा है? दादाश्री: एक ज़रा-सा मोह का बीज होता है, वह जब व्यक्त होता है, तब सारे संसार में व्याप्त हो जाए, ऐसा है। इसलिए कम हो या ज्यादा, उसमें समझ को लेकर अंतर नहीं है। जब संपूर्ण मोह क्षय होता है, तभी काम बनता है। मन-वचन-काया के योगों का मूर्छित प्रवर्तन, वह चारित्रमोह है।

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