Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 117
________________ आप्तवाणी-१ २११ २१२ आप्तवाणी-१ इसलिए मेरी नहीं चलती, पर बड़ा होकर बताऊँगा। बच्चा तो क्लेशवाली दृष्टि भी समझता है और शांत दृष्टि भी समझता है। क्लेश का काल तो जैसे-तैसे करके बीत जाता है, पर उस समय अनंत जन्मों के बंधन बाँध लेता है। अनंत जन्मों के क्लेश के बीज भरे पड़े हैं, इसलिए सामग्री मिलते ही क्लेश खड़ा हो जाता है। ज्ञानी पुरुष भरे हुए क्लेश बीजों को जला डालते हैं। फिर क्लेश खड़ा नहीं होता। श्रीमद् राजचंद्रजी कहते हैं, 'जिनके घर एक दिन बिना क्लेश का जाएगा, उन्हें हमारे नमस्कार हैं।' वास्तव में सुख-दुःख क्या है? दुःख तो किसे कहते हैं? ज्ञानी की संज्ञा में तो दुःख है ही नहीं। लोकसंज्ञा से ही दुःख हैं। ज्ञानी की संज्ञा से दुःख कभी आता नहीं है और लोकसंज्ञा से तो इधर गया, तो भी दुःख और उधर गया, तो भी दु:ख, वहाँ कभी भी सुख नहीं है। दुःख तो कब कहलाता है? कि खाने गए हों और खाना नहीं मिले और अंदर पेट में आग लगी हो, उसे दुःख कहते हैं। प्यास लगी हो और पीने को पानी नहीं मिले, वह दुःख है। नाक दबाने पर पाँच ही मिनट में दम घुटने लगे वह दुःख है। यह बाहर से चाहे जितना टेन्शन आया, तो चलेगा, मगर भूख-प्यास और हवा का नहीं चलता। क्योंकि और सारा टेन्शन तो कितना भी क्यों न आए, सहन होता है, उससे मर नहीं जाते। पर लोग तो बिना काम के टेन्शन लिए फिरते कि यह अच्छा है तो सुख लगता है। सामनेवाले को जैसा पसंद हो, वैसा करें, तो पुण्य बंधता है। बुद्धि का आशय बदलता रहता है, पर मरते समय जो आशय होता है, उसके अनुसार परिणाम आता है। यह इवोल्यूशन (उत्क्रांति) है। पहले मील का ज्ञान हो. वह दूसरे मील पर फिर उत्क्रांत होता है। पिछले जन्म में चोरी का अभिप्राय हो गया हो, पर इस जन्म में ऐसा ज्ञान हो कि यह गलत है, तो उसके मन में रहता है कि यह गलत हो रहा है। पर चोरी तो पहले के आशय में सेट हो चुकी थी और इसलिए चोरी होती ही रहती है। एग्रीमेन्ट फाड़ा नहीं जा सकता। जो एग्रीमेन्ट हो चुका है, वह अधूरा नहीं रहता, पूरा होता ही है। उससे पहले मरता नहीं है। हम क्या कहते हैं कि तेरा जो उलटा आशय है, उसे तू बदल दे। चोरी नहीं करनी है, ऐसा तू बार-बार तय करता रह। जितनी बार चोरी करने का विचार आए, उतनी बार तू उसे जड़ से उखाड़ता रहे, तो तेरा काम होगा। सुलटा होता जाएगा। संसार के लोगों को व्यवहार धर्म सिखलाने के लिए हम कहते हैं कि परानुग्रही बन। अपने खुद के बारे में विचार ही न आए। लोककल्याण हेतु परोपकारी बन। यदि आप अपने खुद के लिए खर्च करेंगे, तो वह गटर में जाएगा और दूसरों के लिए कुछ भी खर्च करें, तो वह आगे का एडजस्टमेन्ट है। शुद्धात्मा भगवान क्या कहते हैं? 'जो दूसरों का ध्यान रखता है, मैं उसका ध्यान रखता हूँ और जो खुद का ही ध्यान रखता है, उसे मैं उसके हाल पर छोड़ देता हूँ।' दोष दृष्टि प्रश्नकर्ता : सामनेवाले में जो दोष दिखते हैं, वह दोष खुद में होता है क्या? प्रश्नकर्ता : एक को सुख पहुँचता है और दूसरे को दुःख ऐसा क्यों? दादाश्री : सुख-दुःख कल्पित हैं, आरोपित हैं। जिसने कल्पना की दादाश्री : नहीं, ऐसा कोई नियम नहीं है, फिर भी ऐसा दोष होता

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