Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 109
________________ आप्तवाणी - १ दादाश्री : यह चाय का गिलास आपसे खुद से टूटे, तो आपको दुःख होगा? खुद फोड़ो, तो आपको सहन करना होता है? यदि आपके बेटे से टूट जाए, तो दु:ख, चिंता-संताप होते हैं। खुद की ही भूलों का 'हिसाब है', ऐसा यदि समझ में आ जाए, तो क्या दुःख या चिंता होगी ? यह तो परायों के दोष निकालकर दुःख या चिंता खड़े करते हैं और रातदिन बस, दुःख ही खड़े करते हैं और ऊपर से खुद को ऐसा लगता है कि मुझे बहुत सहन करना पड़ता है। १९५ 'स्वरूप का ज्ञान' ऐसा है कि जैसे-जैसे परिणाम में आता जाता है, तब कुछ भी सहन नहीं करना पड़ता। ज्ञाता ज्ञेय संबंध समझने से सहन करना नहीं पड़ता। तेरे साथ कोई टकराया क्यों? वही तेरा दोष है। हमारे दोष से ही बंधन है। खुद की भूलों से छुटकारा पाना है। यह तो संयोग संबंध हैं। बिना हिसाब के कोई मिलता ही नहीं। सब खुद के दोषों से ही बँधे हुए हैं। मात्र खुद के दोष देखने से छूट सकें, ऐसा है। 'हम' अपने दोषों को देखते रहे, इसलिए 'हम' छूट गए। निजदोष समझ में आए, तो दोषों से छूटता जाता है। खुद के हाथों से पाँच सौ रुपये खो जाएँ, तो सहन कर सकते हैं। वैसे ही खुद की भूलें समझ में आएँ, तो सहन करने की शक्ति अपने आप आएगी। जब समझ में आए कि दोष किस का था? खुद का था, तो छूट सकते हैं, वर्ना और अधिक बंधन में आते हैं। लोग सहनशक्ति बढ़ाने को कहते हैं, मगर वह कब तक टिकती है ? ज्ञान की डोर तो ठेठ तक पहुँचती है। सहनशक्ति की डोर कहाँ तक पहुँचती है? सहनशक्ति की लिमिट है, ज्ञान अनलिमिटेड है। यह हमारा ज्ञान ही ऐसा है। किंचित्मात्र सहन करने को रहता नहीं । सहन करने में तो लोहे को आँख से देखकर पिघलाएँ, उतनी शक्ति चाहिए। जब कि इस ज्ञान से किंचित् मात्र सहन किए बगैर, परमानंद के साथ मुक्ति ! ऊपर से समझ में आता है कि यह तो हिसाब चुक रहा है। मुक्त हो रहे हैं। आप्तवाणी - १ निजदोष दृष्टि अर्थात् समकित यानी कि सीधी राह पर चल पड़ा। एक ही बार सीधी राह पर आ जाए, तो उसकी संसार की दुकान खाली होने लगती है। सीधी राह पर आया मनुष्य हमेशा खुद के ही दोष देखता है । जब की उलटी राह चलनेवाला? तब कहे, खुद के बर्तन जूठे पड़े हों और दूसरों से कहता है कि लाओ आपके बर्तन धो दूँ । १९६ हमने खुद ज्ञान में देखा है कि संसार किस से बँधा है? मात्र निजदोष से बँधा है। अंत में कौन-सी दृष्टि चाहिए? जीव मात्र जब निर्दोष दिखाई दे, तब काम हो गया, ऐसा कह सकते हैं। मनुष्यों को ही नहीं पर यह पेड़ टेढ़ा है, ऐसा भी नहीं बोल सकते। छोड़ न झँझट । अनंत जन्मों से यही सब गाया हैं न? हमारी दो चाबियाँ यदि पकड़ ले, तो समकित हो जाए ऐसा है। (१) मन को गाँठें कहा है। मन को पराया कहा है। मन को वश करने जाएँ, तो वह प्रतिकार करता है। हमने गाँठों से बना बोल दिया, फिर शेष क्या रहा? (२) दूसरी चाबी : 'भुगते उसीकी भूल' । आड़ापन - स्वच्छंदता खुद में स्वच्छंद नामक एक ऐसा दोष है कि वह कभी तरने नहीं देता। अनंतकाल का लेखा-जोखा अर्थात् चंदूभाई का बहीखाता । अरे ! अनंतकाल में इतना ही कमाया ? आठ प्रकार के कर्मों की कमाई में अनंतज्ञान में से ज्ञान की एक बूंद भी उत्पन्न नहीं हुई है। अनंत दर्शन में से अथवा अनंत सुख में से सुख का एक छींटा भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिसे सुख माना है, वह तो आरोपित है, सच्चा नहीं है। माना हुआ मोक्ष नहीं चलेगा, यथार्थ मोक्ष चाहिए। हमारा ऊपरी कोई इस वर्ल्ड में है ही नहीं, ऐसा मुक्ति सुख प्राप्त हो, तब यथार्थ मोक्ष हुआ कहलाएगा।

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