Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 104
________________ आप्तवाणी - १ है कि भुगते उसीकी भूल है। 'भुगते उसकी भूल' इतना यदि पूर्णरूप से समझ में आ जाए, तो भी मोक्ष मिल जाए। यह जो लोगों की भूल देखते हैं, वह तो बिलकुल गलत है। खुद की भूल के कारण निमित्त मिलते हैं। यदि जीवित निमित्त मिला, तो उसे काटने दौड़ते हैं, और काँटा चुभे तब क्या करता है? चौराहे पर काँटा पड़ा हो और हजारों मनुष्य आएँ जाएँ पर किसी को भी नहीं लगता, पर चंदुभाई जाएँ तब काँटा टेढ़ा पड़ा हो, तो भी उनके पैर में घुस जाता है। 'व्यवस्थित' तो कैसा है? जिसे काँटा लगनेवाला हो उसे ही लगता है। सारे संयोग इकट्ठे कर देता है, पर उसमें निमित्त का क्या दोष ? १८५ यदि कोई मनुष्य दवाई छिड़ककर खाँसी खिलवाए, तो उसके लिए लड़ाई-झगड़ा हो जाता है। जब कि मिर्च का छौंक उड़ने पर खाँसी आए, तो कोई झगड़ा करता है कभी? यह तो जो पकड़ा जाए, उनसे लड़ते हैं। निमित्त को काटने दौड़ते हैं। यदि हक़ीक़त समझ में आ जाए कि करनेवाला कौन है और किस लिए होता है, तो रहेगा कोई झंझट फिर? चिकनी मिट्टी में बूट पहनकर घूमें, और फिसलें, तो उसमें दोष किस का ? तेरा ही! समझ में नहीं आता कि नंगे पैर चलें, तो उँगलियों की पकड़ रहती है और गिरते नहीं। इसमें दोष किस का ? मिट्टी का, बूट का या तेरा? सामनेवाले का मुँह यदि आपको फूला हुआ दिखाई दे, तो वह आपकी भूल । तब उसके 'शुद्धात्मा' को याद करके उसके नाम की माफ़ी माँगते रहें, तो ऋणानुबंध से छूट सकते हैं। जो दु:ख भुगते, उसकी भूल और सुख भोगे, तो वह उसका इनाम । भ्रांति का कानून निमित्त को पकड़ता है। भगवान का कानून, रियल कानून एग्ज़ैक्ट है, वह तो जिसकी भूल हो उसीको पकड़ता है। यह कानून एग्ज़ैक्ट है। और उसे कोई बदल सके वैसा है ही नहीं। संसार में ऐसा आप्तवाणी - १ कोई कानून नहीं है कि जो किसी को दुःख दे सके। सरकारी कानून भी ऐसा नहीं कर सकता। यह तो भुगते उसकी भूल । भुगतते हैं उस पर से हिसाब निकल जाता है कि कितनी भूल १८६ थी। घर में दस मनुष्य हों, उनमें से दो को घर कैसे चलता होगा उसका विचार मात्र भी नहीं आता, दो को घर में हैल्प करें, ऐसा विचार आता है और दो जने हैल्प करते हैं, पर एक तो सारा दिन घर किस प्रकार चलाना, उसीकी चिंता में रहता है, और दो जने आराम से सोते हैं, तो भूल किस की ? अरे ! भुगतता है उसकी ही चिंता करे, उसकी ही । जो आराम से सोता है, उसे कुछ भी नहीं । सास बहू को डाँटे, तो भी बहू सुख में हो और सास भुगते, तो भूल सास की ही समझना। जेठानी को तंग करे, और भुगतना पड़े, वह हमारी भूल और छेड़ें नहीं फिर भी वह दुःख दे, तो वो पिछले जन्म का कुछ हिसाब बाकी होगा, वह चुकाया। तब आप फिर से भूल मत करना, वर्ना फिर से भुगतना पड़ेगा। इसलिए छूटना चाहो, तो वह जो कुछ कड़वा-मीठा दें (अच्छा-बुरा कहें ), उसे जमा कर लेना । हिसाब चुक जाएगा। इस जगत् में बिना हिसाब के तो आँखें तक नहीं मिलतीं। तो और कुछ क्या बिना हिसाब के होता होगा? आपने जितना - जितना जिसजिस को दिया होगा, उतना उतना वह आपको वापस करेगा। तब आप उसे जमा कर लेना । खुश होकर कि हा! अब हिसाब पूरा होगा। वर्ना यदि भूल करेंगे, तो फिर से भुगतना पड़ेगा ही। यह सारा संसार 'हमारी' मालिकी का है। हम 'खुद' ब्रह्मांड के मालिक हैं, पर हमारी भूलों से बंधे हैं। भुगतना क्यों पड़ा? यह खोज निकालिए न? यह तो अपनी भूलों से बंधे हैं, लोगों ने आकर बाँधा नहीं है। अतः भूलें नष्ट हों, तो मुक्त। वास्तव में तो मुक्त ही हैं, पर भूलों के कारण बंधन है।

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