Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 89
________________ आप्तवाणी-१ १५६ आप्तवाणी-१ मनुष्य देह का प्रयोजन सारे संसार में से कितनों को मालूम है कि यह देह किस लिए प्राप्त हुई है? देह जो प्राप्त हुई है, वह किस लिए है? उसका ही भान नहीं है। मौज-मजा करेंगे, भगवान की भक्ति करेंगे, योग करेंगे, तप करेंगे या त्याग करेंगे ऐसा भान बरतता है। मगर यह देह तो 'गुनहगारी' टालने के लिए प्राप्त हुई है। प्रत्येक प्राप्त संयोगों का समभाव से निपटारा करके. भगवान के साक्षात्कार के लिए यह देह प्राप्त हुई है। इसलिए ही तो कवि लिखते हैं, 'देह जे प्राप्त थयो, गनेगारी टाळवा, कर्म आवरण खप्ये, भगवान न्याळवा।' देह जो प्राप्त हुई, गुनहगारी टालने, कर्म आवरण खपाने, भगवान निहारने। आचार, विचार और उच्चार आचार, विचार और उच्चार, तीनों चंचल वस्तुएँ हैं। अपने को' तो केवल जानना चाहिए कि विचार ऐसा आया। विचार आते हैं, उनके हम जिम्मेदार नहीं हैं, क्योंकि वे तो पहले की गाँठे फूटती हैं। वह तो पहले हस्ताक्षर हुए थे, इसलिए आज उसके जिम्मेदार नहीं हैं। पर यदि फिर से हस्ताक्षर कर दें, तो भयंकर जोखिम है। 'आत्मा' स्वयं अचल है तथा आचार, विचार और उच्चार चंचल भाग में हैं। जो जो कार्यान्वित होता है, वह 'चार' में आता है, 'आचार', 'विचार' और 'उच्चार'। प्रत्यक्ष रूपक में आए वह 'आचार', अंदर फूटे वह 'विचार' और जो बोला जाए वह 'उच्चार'। यदि नोर्मेलिटी में रहे, सम रहे, तो संसार कहलाए। इसलिए बाहरी भाग को-बाह्याचार को, नोर्मेलिटी में रहने को कहा है। सतयुग में मन का विचार, अकेला ही बिगडता था। वाणी और देह का आचार नहीं बिगड़ता था। आज तो सभी आचार बिगड़े हुए देखने को मिलते हैं। यदि मन का आचार बिगड़ा होता, तो चला लें, पर वाणी का और देह का नहीं चलाया जा सकता। सभी आचार बिगड़ें हों. तो भयंकर प्रत्याघाती वाणी निकलती है। वह सारा बिगाड़ ही निकलता है। ज्ञान के प्रताप से जो बाह्याचार बिगड़े थे, वे बंद हो जाते हैं। देह का आचार शुद्ध चाहिए। मन और वाणी के आचार बदलते रहते हैं। देह का आचार खराब हो, तो वह तो बहुत बड़ा जोखिम है। देवगण भी दु:ख देंगे, बाह्याचार शुद्ध हो, तो देवगण भी खुश रहते हैं। शासन देवता भी खुश रहते हैं। बाह्याचार बिगड़ने का कारण क्या? बाहर सुख नहीं मिलता है. इसलिए। अंदर का अपार सुख मिलने के बाद, बाहर के आचार सुधरते जाते है। ज्ञानी के लिए तो अंदर के सभी आचार ज्ञेय स्वरूप हो जाते हैं और खुद ज्ञाता-दृष्टा पद में रहते हैं। हमारे पास ज्ञान है, इसलिए चाहे कैसे भी दु:ख के संयोग आएँ तो उनमें से बिना डिगे बाहर निकल सकते हैं। संकट समय की जंजीर है, वह खींचें, तो निपटारा हो जाता है। यह ज्ञान नहीं हो, तो लट्ट की तरह फिरता रहता है, पर ज्ञान है, तो बाह्याचार सुंदर होना चाहिए, वर्ना बहुत बड़ा जोखिम आ पड़ता है। लोकनिंद्य आचार तो नहीं होना चाहिए। जो-जो आचार लोकनिंद्य हो, वे हमें नहीं होने चाहिए। वाणी खराब हो, मन खराब हो, तो चला सकते हैं, पर देह का आचार खराब हो, तो नहीं चला सकते, वहाँ तो देवीदेवता भी खड़े नहीं रहते। मन और वाणी के हम ज्ञाता-दृष्टा हैं, और वे तो ज्ञेय फिल्म कहलाते हैं, पर बाह्याचार तो नहीं चला सकते। लोकनिंद्य आचार में पड़ने के बजाय शादी कर लेना उत्तम। बाकी. ऐसी भल तो दिखे तभी से निकाल बाहर करनी चाहिए। उसमें ज्ञाता-ज्ञेय संबंध रखने गए, तो वह भल कहाँ फेंक देगी यह कहा नहीं जा सकता। किसी दिन ज्ञान को एक ओर हटाकर चढ़ बैठेगी। जहर की परख नहीं करते। अहंकार करके भी

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