Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 88
________________ आप्तवाणी-१ १५३ १५४ आप्तवाणी-१ ओर। अरे! तू श्मशान जा रहा है और रास्ते में पकोड़े-वकोड़े खाने क्यों बैठ गया? कुछ तो सोच? प्रतिक्षण त् श्मशान की ओर आगे बढ़ रहा है! कभी न कभी अंतिम स्टेशन पर तो तुझे पहुँचना ही है न? जल्दी या देर से नहीं, मगर शांतिपूर्वक जा सके इतनी आशा रख सकते बुढ़ापा आए, तब सभी दर्दो का एक ही दर्द हो जाता है, उसकी दवाई जान लें, तो दर्द शुरू हो तब ले सकते हैं। यह तो, अंतिम दर्द हमें ले जाने को आता है। कि इसका पेमेन्ट करना पड़ेगा। यह तो बिना हक़ के भोग-विलास, इसलिए फिर आखिरी घड़ी में भी पेमेन्ट करना पड़ता है। जब कि सरल मनुष्यों को बहुत अच्छा रहता है। मरते समय यदि ऐसा कहकर जाएँ कि हम जाते हैं, तो भी अच्छा, उसकी ऊँची गति होती है। ऊँचे ओहदे पर जाते हैं। पर बेहोशी में मरें, तो बेहोश में जाते हैं, गाय-भैंसों में जाते हैं। जिसका हार्ट फेल होता है, उसका तो कोई ठिकाना ही नहीं। वर्तमानकाल में तो रौद्रध्यान और आर्तध्यान ही छाए हुए हैं, इसलिए जीना भी मुश्किल हो गया है और मरना भी मुश्किल हो गया है। जवान मरते हैं. तो वे रौद्र और आर्तध्यान में मरते हैं। बुड्ढे मरते हैं, तो कल्पांत में, अतः भयंकर जोखिमदारी ले लेते हैं। भोजन आज का अप्रमाणिकतावाला, कपड़े-वपड़े सब अप्रमाणिकतावाले यानी आर्त और रौद्रध्यान करके इकट्ठा किया हुआ। अत: मरें तब भी बहुत दुःख भुगतते हुए मरते हैं। शरीर का एक-एक परमाणु दुःख देकर, काटकर जाता है, और बहुत दु:ख हो, तो हार्ट फेल होकर मर जाता है। और फिर अगले जन्म में कर्म भोगने पड़ते हैं। यह तो परमाणु का साइन्स है। वीतरागों का साइन्स है। इस में किसी की एक नहीं चलती ! खुद के हिसाब की फटी साड़ी अच्छी, खुद की प्रामाणिकता की खिचड़ी अच्छी, ऐसा भगवान ने कहा है। अप्रमाणिकता से प्राप्त करें. वह तो गलत ही है न? बुढ़ापा आए और जाने का हो, तब पटाखे एक साथ फूट जाते हैं, पर ज्ञान नहीं हो, तो बुढ़ापा काटना भारी पड़ जाए, मगर ज्ञान मज़बूत हो गया हो, तो जो जो पटाखे फूटें, उनके प्रति ज्ञाता-दृष्टा रहकर स्वयं (शुद्धात्मा) की गुफ़ा में रह सकते हैं। हमारे ज्ञानी अंतिम साँस लेते-लेते भी क्या बोलते हैं, मालम है? 'इस गठरी की अंतिम सांस को आप भी देख रहे हैं और मैं भी देखता हूँ!' अंतिम सांस का भी ज्ञाता-दृष्टा रहता है ! सभी को एक न एक दिन दुकान तो बंद करनी ही पड़ेगी न? सभी जाने के लिए ही तो आते हैं ने? अरे! जन्म होते ही 'वे टु श्मशान' शुरू हो जाता है। अरे! तू कहाँ चला? श्मशान की जो देह मुरझा जाए, सड़ जाए, गंध मारने लगे, उससे प्रीति क्यों? यह तो चमड़ी से ढंका माँस का पिंड है। इस देह को प्रतिदिन नहलातेधुलाते, खिलाते-पिलाते, कितना जतन करते हैं, पर वह भी आख़िर में दगा दे देती है। यह देह ही यदि सगी नहीं होती, तो औरों का तो कहना ही क्या? इस देह को बार-बार सहलाते रहते हैं, पर यदि उसमें से पीप निकले, तो पसंद आए क्या? देखना भी अच्छा नहीं लगे, वैराग्य आए। यह तो पीप, रुधिर और माँस के पिंड ही हैं। हमें, ज्ञानी पुरुष को सबकुछ साफ दिखाई देता है। जैसा है वैसा दिखाई देता है, इसलिए वीतराग ही रहते हैं। देह पर अनंत जन्मों राग किया, उसका फल जन्म-मरण आया। एक बार आत्मा का रागी बन, यानी वीतरागी हो जा, तो अनंत जन्मों का हल निकल जाएगा। शरीर तो कैसा होना चाहिए? जो शरीर मोक्ष का साधन बन जाए ऐसा होना चाहिए। 'चरम शरीर' प्राप्त होना चाहिए। यह शरीर तो परमाणुओं का बना हुआ है, और कुछ है ही नहीं। जिस प्रकार के परमाणुओं का संग, वैसा ही देह में अनुभव होता है। पशु-पक्षी, वनस्पति, सभी जीव मनुष्यों के लिए जीते हैं और मनुष्य खुद अपने लिए जीता है। फिर भी भगवान कहते हैं कि मनुष्य देह देवताओं के लिए भी दर्शन करने योग्य है। समझे, तो काम ही निकाल ले।

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