________________
आप्तवाणी-१
१५१
१५२
आप्तवाणी-१
नहीं है, तो सारी रात नींद नहीं आती। आत्मज्ञान नहीं हो, तब तक देहाध्यास टूटे ऐसा नहीं है। मैं चंदूलाल, मैं इसका मामा, इसका चाचा, इसका पति, इसका पिता वही देहाध्यास। जब तक देहाध्यास टूटता नहीं, तब तक स्थूल और सूक्ष्म वर्गणा (संबंध) रहती है, शुभ और अशुभ रहता है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका यथार्थ ज्ञान हो, तो देहाध्यास टूटता है, फिर इकलौता लड़का मर जाए, तो भी द्वंद्व नहीं होता, पन्चिंग नहीं होता। अच्छा या बुरा ऐसा रहता नहीं।
जैसा देहाध्यास हुआ है वैसा आत्माध्यास होना चाहिए। नींद में, गहरी नींद में भी आत्मा का भान रहना चाहिए। हम देते हैं, उस ज्ञान से सभी अवस्थाओं में आत्माध्यास ही रहता है। यह तो गज़ब का ज्ञान है! जैसे दही को मथने के बाद मक्खन और छाछ दोनों अलग ही रहते हैं, ऐसा यह ज्ञान है। देह और आत्मा अलग के अलग ही रहते हैं।
पहले ज्ञानी कोल्हू में पिस-पिसकर गए थे, वह इसलिए कि तू आत्मा है, तो देह को कोल्हू में पिसना हो, तो पिसने दे। देह का तेल निकलना हो, तो तेल निकलने दे। आत्मा पिसनेवाला नहीं है, ऐसी कसौटी पर खरे उतरकर गए थे।
देह की तीन अवस्थाएँ देह की तीन अवस्थाएँ - बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था।
बाल्यावस्था में परमानंद - सहजानंद होता है। बालक को कोई भी चिंता नहीं होती। जन्म से पहले ही दूध की कुंडियाँ भरकर छलक गई होती हैं। छोटे बच्चे को है कोई चिंता? दूध कहाँ से आएगा? कब आएगा? और फिर भी उसे सबकुछ समय पर आ ही मिलता है न? ज्ञानी पुरुष बालक जैसे होते हैं, मगर बालक को सब नासमझी में होता है, जब कि ज्ञानी पुरुष संपूर्ण समझदारी के शिखर पर होने के बावजूद बालक जैसे होते हैं। बालक का मन डेवलप नहीं हुआ होता है, बुद्धि डेवलप्ड नहीं हुई होती है। अकेली चित्तवृत्ति ही कार्य करती रहती है।
उसकी चित्तवृत्ति उसकी पहुँच के विषय में ही होती है। जैसे, खिलौना नज़र में आया, तो उसकी चित्तवृत्ति उसीमें रहती है, मगर कितनी देर? थोड़ी ही देर। फिर दूसरे विषय में चली जाती है। एक ही विषय में चित्तवृत्ति ठहरती नहीं है, जब कि बड़ी उम्रवालों के तो दो-चार विषयों में ही चित्तवृत्ति रहा करती है और उन्हीं में घूमती रहती है। इसीलिए तो सारा बवाल खड़ा होता है न? बालक थोड़ी देर बाद भूल जाता है, क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति उसमें स्थिर होती नहीं है, तुरंत ही उसमें से उड़ जाती है। छोटे बच्चे में जब तक बुद्धि जागृत नहीं हुई है, तब तक उसका सहजानंद व्यवस्थित है। फिर जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती जाती है वैसे-वैसे संताप भी बढ़ता जाता है।
युवावस्था प्रकट अग्नि समान है। उसमें बाह्याचार बिगड़ने के संयोग खड़े होते हैं, इसलिए उसमें विशेष रूप से सावधान हो कर चलना अच्छा। देवों को जन्म, जरा (बुढ़ापा) या मृत्यु नहीं होते। उन्हें निरंतर यौवन ही होता है।
वृद्धावस्था अर्थात् बुढ़ापा। बुढ़ापा बिताना बड़ा कठिन है। सारी मशीनरियों का दिवाला निकल चुका होता हैं। दाँत कहे टूटता हूँ, कान कहे दु:खता हूँ, बुढ़ापे को बहुत सँभालना पड़ता है। बहुत चिकने कर्म न हों, तो बैठे-बैठे ही चल बसता है। सारी मशीनरियों का दिवाला निकल गया हो और पूछे कि अब जाना है न चाचाजी?'तब भी चाचाजी कहेंगे, 'अभी तो थोड़ा और जी लूँगा!' ये तो सारे चाय-पानी के लालच हैं!
बाँधे गए कर्म तो आतिशबाजी जैसे हैं। वे भी बुढ़ापे में ही फूटते हैं। इस ओर बम फूटें, इस ओर रॉकेट उड़ें और भारी उथल-पुथल कर देते हैं। इस देह से जो-जो शाता भोगी हों, वे आखिर में अशाता देकर जाती हैं। और अशाता भोगी हो, तो आखिर में शाता देकर जाती हैं। ऐसा नियम है। अशाता के प्रमाण अनुसार शाता देकर जाती है। कोई ही ऐसा पुण्यवान होता है, जो आखिर में शाता पाकर जाए। ऐसा शीलवान कोई ही होता है। संसार के लोगों को भोग-विलास करते समय भान नहीं होता