Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 101
________________ आप्तवाणी-१ १७९ आप्तवाणी-१ आयुष्य की पूँजी श्वासोच्छवास के काउन्ट (गिनती) पर आधारित है। जहाँ ज्यादा श्वासोच्छवास चलें, वहाँ आयुष्य की पूँजी खर्च होती जाती है। क्रोध-मान-माया-लोभ-मोह-कपट में श्वासोच्छवास अधिक खर्च हो जाते हैं और दैहिक विषयों में पढ़ें, तब तो भयंकर रूप से खर्च हो जाते हैं। इसलिए ही संसारी मनुष्यों को कहता हूँ कि और कुछ नहीं बन पाए, तो मत करना पर लक्ष्मी और वीर्य की इकॉनोमी अवश्य करना। ये दोनों चीजें संसार व्यवहार के मुख्य स्तंभ हैं। शराब को खराब कहा है, क्योंकि वह विषय की ओर ले जाती है। करोड़ों जन्मों में भी पार नहीं आए, उतने अनंत विषय हैं। उनमें पड़कर उन सभी विषयों को भोगते हए भी हमने हमारे महात्माओं को निर्विषयी बनाया हैं! लोग विषय के लिए नहीं जीते हैं, पर विषय के अहंकार के पोषण के लिए जीते हैं। जिन-जिन विषयों का अहंकार लाए हैं, उनके परमाणु देह में हैं। हमने हमारे महात्माओं के विषय के अहंकार को निकाल दिया है, फिर भी पहले के परमाणु भरे हुए हैं, जो फल देकर चले जाएंगे। जिन विषयों का अहंकार भरा हुआ है, वे विषय सामने आएंगे। जिन-जिन विषयों का अहंकार निर्मूल हुआ है, वे विषय नहीं आएंगे। जब बाह्य अहंकार पूर्णतया निर्मूल होगा, और परमाणु फल देकर विदा होंगे, तब देह चली जाएगी। प्रत्येक परमाणु का समभाव से निपटारा होगा, तब इस देह का भी मोक्ष होगा। संसार के रिलेटिव धर्म अबंध को बंध मानते हैं, और जिससे उन्हें बंध होता है उसका उन्हें भान ही नहीं है। यह सूक्ष्म वाक्य है, इसे समझना मुश्किल है। सारा संसार विषयों के ज्ञान को जानता है। जिस विषय की पढ़ाई की उसीके ज्ञान को जानता है। अरे! जिस विषय की पढ़ाई की उसीका विषयी हुआ। रिलेटिव धर्म में तो पाँच ही विषय बताए हैं. पर विषय तो अनंत हैं। एनोर्मल यानी कि एबव नोर्मल या बिलो नोर्मल हुआ तो विषयी हुआ। विषयी हुआ, अतः 'जगत्ज्ञान' में पड़ा, ऐसा कहलाता है। वहाँ 'आत्मज्ञान' नहीं होता। प्रेम और आसक्ति 'घड़ी चढ़े घड़ी उतरे वह तो प्रेम ना होय, अघट प्रेम हृदे बसे, प्रेम कहिए सोय।' सच्चा प्रेम किसे कहते हैं? जो कभी बढ़ता भी नहीं है और घटता भी नहीं है। निरंतर एक समान, एक-सा ही रहे, वही सच्चा प्रेम। 'शुद्ध प्रेम, वही प्रकट परमेश्वर प्रेम है।' बाकी जो प्रेम घटता-बढ़ता रहे, वह प्रेम नहीं कहलाता, आसक्ति कहलाता है। ज्ञानी का प्रेम शुद्ध प्रेम है। ऐसा प्रेम कहीं देखने को नहीं मिलेगा। दुनिया में आप जहाँ कहीं देखते हैं, वह सारा प्रेम अवसरवादी प्रेम है। औरत-मर्द का, माँ-बाप का, बाप-बेटे का, माँ-बेटे का, सेठ-नौकर का। हर एक का प्रेम अवसरवादी होता है। अवसरवादी है, ऐसा कब समझ में आता है कि जब प्रेम फ्रेक्चर होता है। जब तक मिठास लगे, तब तक कुछ नहीं लगता, पर कड़वाहट पैदा हो तब पता चलता है। अरे, सारी जिंदगी बाप के कहने में रहा हो और एक ही बार गुस्से में संयोगवश यदि बाप को बेटे ने 'आप कमअक़ल हैं' कह दिया, तो सारी जिंदगी के लिए संबंध टूट जाएगा। बाप कहेगा, 'त् मेरा बेटा नहीं और मैं तेरा बाप नहीं।' यदि सच्चा प्रेम हो, तो वह हमेशा के लिए वैसा का वैसा ही रहेगा, फिर चाहे गालियाँ दे या झगड़ा करे। इसके सिवाय तो जो प्रेम रहा वह सच्चा प्रेम कैसे कहलाएगा? अवसरवादी प्रेम ही आसक्ति कहलाता है। वह तो व्यापारी और ग्राहक जैसा प्रेम है, सौदेबाजी है। संसारी प्रेम तो आसिक्त है। प्रेम तो वह कि साथ ही साथ रहना अच्छा लगे। उसकी सारी बातें अच्छी लगें। उसमें एक्शन और रिएक्शन नहीं होते। शुद्ध प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम प्रवाह तो एक-सा ही बहता है। वह घटता-बढ़ता नहीं है, पूरण-गलन नहीं होता। आसक्ति पूरण-गलन स्वभाव की होती है। जहाँ सो गया वहीं का आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोता हो,

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