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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
आत्मा की किसी भी क्रिया में दखल देता ही नहीं है। केवल देखता है और जानता है। सारी उठापटक तो प्रतिष्ठित आत्मा की है। प्रतिष्ठित आत्मा जो जानता है, वह ज्ञेय है और प्रतिष्ठित आत्मा को जो ज्ञेय के रूप में जानता है, वह शुद्धात्मा है। प्रतिष्ठित आत्मा की उठापटक क्यों कर है? क्योंकि वह इन्टरेस्टेड है। शद्धात्मा को इन्टरेस्ट नहीं है। वह तो ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी है। 'शुद्धात्मा' स्व-पर प्रकाशक है, जब कि प्रतिष्ठित आत्मा, पर प्रकाशक है। 'शद्धात्मा' प्रतिष्ठित आत्मा को भी देखता है और जानता है, इसलिए प्रतिष्ठित आत्मा ज्ञेय है। शद्धात्मा और प्रतिष्ठित आत्मा के बीच ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध मात्र है।
अज्ञानी पूछेगा, तब दुःख किसे होता है?' अरे, दुःख तुझे ही होता है। तू आत्मा नहीं? आत्मा है, मगर प्रतिष्ठित आत्मा। तेरा आरोपित आत्मा। असल, मूल आत्मा, शुद्धात्मा को तो तू जानता ही नहीं है, पहचाना ही नहीं है। तब फिर तुझे, 'वह', कैसे कहा जाए? हाँ, तू शद्धात्मा को जाने, उसे पहचाने और उसमें ही निरंतर रहे, तो तू शुद्धात्मा और यदि तू चंदूलाल और यह देह तेरी है, तो तू प्रतिष्ठित आत्मा। अहंकार और ममता की प्रतिष्ठा की इसलिए तू प्रतिष्ठित आत्मा।
जापान के लोगों ने मोटर बनाई। चाबी ऐसी दी की पाँच किलोमीटर के फासले पर जाकर खड़ी रहे। उसमें चार जने सवार हए। मोटर तो चाबी के आधार पर चल पड़ी। चाबी लगानेवाला जिसे मिलने जा रहा था, वह भाई डेढ़ किलोमीटर के फासले पर रास्ते में मिल गया और कहने लगा, 'जय सच्चिदानंद, अरे! खड़े रहो, खड़े रहो।' मगर वह खड़ा कैसे रह पाता? चाबी देने के बाद फिर मोटर खड़ी कैसे रहती, वह तो पाँच किलोमीटर के बाद ही रुकेगी न?
प्रश्नकर्ता : यु टर्न लेगा वह तो फिर।
दादाश्री : वह तो समझ की बात है। उसे कहे, 'खड़े रहो।' और शेष अंतर गोल गोल घूमकर पूरा करे, गरबा गाए!
ऐसा है यह संसार ! खुद ने चाबी भरी इसलिए चलानेवाले को भी
गरबा गाना पड़ता है, प्रतिष्ठा करे खुद, पर जब नैचुरली विसर्जन होता है, तब फँस जाता है।
जो सुनता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। आँख से देखता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। पाँच इन्द्रियों से अनुभव करता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। प्रतिष्ठित आत्मा ने क्या जाना, क्या अनुभव किया, उसे जो देखता है और जानता है, वह 'शुद्धात्मा'। इन्द्रियगम्य ज्ञान वह प्रतिष्ठित आत्मा, अतिन्द्रिय ज्ञान वह शुद्धात्मा। प्रतिष्ठित आत्मा इनडायरेक्ट, लिमिटेड ज्ञान है। शुद्धात्मा वह डायरेक्ट, अनलिमिटेड ज्ञान है। प्रतिष्ठित आत्मा द्वारा चार्ज की हुई शक्तियों का गलन होता रहता है। अंत में प्रतिष्ठित आत्मा
और शुद्धात्मा दोनों साथ ही अलग पड़नेवाले हैं। निर्वाण होता है, तब शुद्धात्मा निराकारी होते हुए भी, अंतिम देह के दो तिहाई के प्रमाण में होता है। संसार में स्थूल या सूक्ष्म का जो आदान-प्रदान, लेना-देना हो रहा है, वह सब प्रतिष्ठित आत्मा का ही है। बाकी न तो कोई लूट सकता है, न ही कोई लुटता है। यह तो प्रतिष्ठित आत्मा द्वारा की हुई प्रतिष्ठिा का आदान-प्रदान हो रहा है।
प्रतिष्ठित आत्मा को जला दें, तो पाप लगता है। क्यों? क्योंकि उसका ही माना हुआ है, आरोपित है। तिपाई को जलाने पर पाप नहीं लगता पर यदि किसी का आरोपण हो, किसी ने प्रतिष्ठा की हो कि यह तिपाई मेरी है, तो भयंकर पाप लगता है। ममता भोक्तापद में गढ़ जाती है। भोक्तापद में मेरे पद का आरोपण करता है। भोक्तापद में जो ममता की गई है, उसका ही यह सामान है। जैसी प्रतिष्ठा करे, वैसा फल मिलता है। सुख की करे, तो सुख मिलता है। पसंद-नापसंद, की गई प्रतिष्ठा के आधार पर होती है। 'शुद्धात्मा' कभी भी वेदक हुआ नहीं है, कर्ता हुआ नहीं है, भोक्ता भी नहीं हुआ है और होगा भी नहीं। वेदक अर्थात् ममता। 'शुद्धात्मा' और वेदक (ममता) विरोधाभास है। वेदक, कर्त्ता या भोक्ता, जो दिखाई देता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है। चक्षुगम्य या इन्द्रियगम्य कोई भी क्रिया शुद्धात्मा की नहीं है। वे सारी क्रियाएँ प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। शुद्धात्मा की क्रिया ज्ञानगम्य है। अनंत ज्ञान क्रिया, अनंत