Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ आप्तवाणी-१ १४१ १४२ आप्तवाणी-१ का भान करानेवाले ज्ञानी नहीं मिलते, तब तक तू निश्चेतन चेतन है। हम ब्रह्मांड के बिना मालिकी के स्वामी हैं, क्योंकि हम शुद्ध चेतन हैं, प्रकट स्वरूप में। जो-जो अवस्थाएँ आती हैं, वे निश्चेतन चेतन हैं, हम शुद्ध चेतन हैं। अवस्थाओं को देखना और जानना है। उसका झट से समभाव से निपटारा कर देना। झट से निपटारा करना आना चाहिए। अवस्था में एकाकार हुए, तो दु:खी होगे, अतः आनंद नहीं आएगा। निश्चेतन चेतन परसत्ता में है। निश्चेतन चेतन में कुढ़न-संताप, आधि-व्याधि-उपाधि होते हैं और रियल चेतन में आनंद-परमानंद और समाधि होती है। चिंता, अकुलाहट होती है, वह निश्चेतन चेतन को होती है। जिन-जिन को चिंता, अकुलाहट या त्रिविध ताप होते हैं, वे सभी के सभी निश्चेतन चेतन हैं। ज्ञान भाषा में (रियल लेगवेज में) चेतन स्वरूप से बाहर कोई जीवित ही नहीं है। सभी निश्चेतन चेतन ही हैं। फिर चाहे वह कोई भी हो। निश्चेतन चेतन में विशेषण 'निश्चेतन' का है। ___ 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा आरोप भ्रांति से करता हैं। 'मैं', आत्मा है, और जहाँ वह खुद नहीं है, वहाँ खुद को प्रतिष्ठित करता है। इसलिए निश्चेतन चेतन खड़ा होता रहता है। जब तक भ्रांति टती नहीं तब तक प्रतिष्ठित रूप में रहना है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा यदि लक्ष्य रहे, तो फिर से निश्चेतन चेतन में नहीं जाता। 'शुद्धात्मा' प्राप्त होने पर ही शुद्ध चेतन समझ में आता है। तभी गुनहगार के पद से संपूर्ण छुटकारा होता है। निश्चेतन चेतनवाले एक गुनहगारी में से मुक्त होते हैं और दूसरी गुनहगारी उत्पन्न करते हैं। इच्छा इच्छा प्रकट अग्नि है। जब तक पूरी नहीं होती तब तक सलगती ही रहती है। भगवान क्या कहते हैं? इच्छा ही अंतराय कर्म है। इच्छा तो एक मोक्ष के लिए और दूसरी ज्ञानी पुरुष की ही करने योग्य है। उससे अंतराय नहीं आता। अन्य सभी इच्छाएँ सुलगाती रहेंगी। वह साक्षात् अग्नि है। उसे बुझाने के लिए लोग पानी खोजते हैं, पर पेट्रोल हाथ में आता है। एक इच्छा पूरी नहीं हुई कि दूसरी आ धमकती है। एक के बाद एक आती ही रहती है। नियम क्या कहता है कि तुझे जो-जो इच्छाएँ होती हैं, वे अवश्य पूरी होंगी ही, पर उसके लिए सोचने से कुछ नहीं होनेवाला। उलटे दखल हो जाती है। बार-बार जो इच्छा आती है, वह पन्चिंग (चुभन) करती ही रहती है। इच्छा तो हर चीज़ की नहीं होती है। यह संसार रस है। जो रस जिसे प्यारा हो, उसकी इच्छा होती है। इच्छा किस की होगी? बुद्धि के आशय में तू जो लाया है, उसकी होती है। बुद्धि के आशय में तू जो सुख भर लाया है, वह सुख पुण्य खर्च करके तुझे मिलता रहता है। संसार की यह जो ब्लेड है, उसे दोनों ओर से इस्तेमाल करना, पर 'शुद्धात्मा' एक ही और से इस्तेमाल करना। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसके बजाय 'मैं अशुद्धात्मा हूँ' ऐसे इस्तेमाल करने पर क्या होगा? सब कट ही जाएगा। शुद्धात्मा की विल (इच्छा) नहीं होती, पर अंतरात्मा की होती है। अंतरात्मा, शुद्धात्मा का पूर्ण पद प्राप्त करने के लिए विल इस्तेमाल करता है। जब पूर्ण दशा होगी, तब विल नाम मात्र को भी नहीं रहेगी और वीतरागता आने पर पूर्णदशा प्राप्त होगी। संपूर्ण वीतराग के विल नहीं होती है। हमारी विल निपटारे की है और आप सभी महात्माओं की विल ग्रहणीय है। ग्रहणीय अर्थात् पूर्ण पद प्राप्ति के लिए और दादाजी की निपटारे की विल यानी संपूर्ण पद प्राप्त हो गया है, इसलिए। प्रश्नकर्ता : इच्छा और चिंतन में क्या भेद है? दादाश्री: चिंतन यानी आगे का हिसाब लिखता है और इच्छा, पिछला क्या-क्या हिसाब है वह दिखा देती है। इच्छा और अनिच्छा दोनों पेटी में भरा हुआ माल है, उसे दिखाती है। पुण्य का क्रम आए, तब इच्छा पूरी होती है और अक्रम आए, तब अनिच्छा ही आगे आया करती है। उदाहरण स्वरूप अंधेरे में नंबर डाले हों और अंधेरे में ही खींचे तब एक के बाद दो, दो के बाद तीन, ऐसे क्रमानुसार नंबर हाथ में आएँ और

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141