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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
यदि ठंडक हो, तो हर्ज नहीं। मिश्रचेतन के लिए जरा-सा भी उलटा विचार आया कि तुरंत उसे मिटा देना चाहिए। प्रतिक्रमण करके निकाल बाहर करना पड़ता है। पर अचेतन के लिए प्रतिक्रमण नहीं करें, तो चलेगा। मिश्रचेतन मोक्ष तो नहीं पाने देता, पर अंदर जो सुख आता हो, उसमें भी अवरोध करता है।
सिनेमा या जीभ की फाइल रोग पैदा नहीं करती, पर मिश्रचेतन से ही रोग पैदा होता है। पकौड़े रूठते नहीं, पर मिश्रचेतन बिना रूठे रहता है क्या? मिश्रचेतन से सारा संसार खड़ा है। मिश्रचेतन ब्लेक होल जैसा है। यदि वह व्यवहार ही बंद हो जाए, तो फिर है कोई उपाधि?
मुक्त मन से बैठ सकें, ऐसी सेफसाइड कर लेना। मन यदि आवाज़ दे कि पकौड़े खाने हैं और खिला दिए, तो फिर मुक्त मन से बैठने देगा। जब कि मिश्रचेतन बैठने नहीं देता। सत्संग में भी काँटे की तरह चुभता रहता है।
आप जो बरतते हैं, वह दो हिस्सों में है, एक तो निश्चचेतन चेतन और दूसरा चेतन, पर आप खुद निश्चेतन चेतन को चेतन मानते हैं। मगर दोनों भाग मिक्सचर स्वरूप में हैं, कंपाउन्ड स्वरूप नहीं है, वर्ना दोनों के गुणधर्म नष्ट हो जाते।
निश्चेतन चेतन मिकेनिकल चेतन हैं। बाहर का सभी भाग मिकेनिकल है। स्थूल मशीनरी को हैंडल मारना पड़ता है, जब कि सूक्ष्म मशीनरी को तू हैंडल मारकर ही लाया है। आज ईंधन भरता रहता है, पर हैंडल मारना नहीं पड़ता। सूक्ष्म मशीनरी. मिकेनिकल चेतन है. पर वहाँ 'मैंने किया' ऐसा गर्व करता है, इसलिए चार्ज होता है और अगले जन्म के बीज पड़ते हैं।
सारा संसार अचेतन को चेतन मानता है और क्रिया में आत्मा मानता है। क्रिया में आत्मा होता नहीं और आत्मा में क्रिया नहीं होती। पर यह बात कैसे समझ पाए? संसार को तो अचेतन चेतन चलाता है। चेतन अलग है, अचेतन भी अलग है और संसार को जो चलाता है, वह
भी अलग है। वह विभाविक गुण है। जो चलाता है, वह भी अलग है। वह विभाविक गुण है, जो अचेतन चेतन है। विभाविक गुण यानी आत्मा की भ्रांति से उत्पन्न होता है, ऐसा वह, चलायमान हुआ मिश्रचेतन।
मनुष्य देह मोक्ष का अधिकारी डार्विन ने 'इवॉल्युशन थ्योरी' लिखी मगर वह पूर्ण नहीं है। कुछ अंशो तक सही है। मनुष्य गति के बाद वक्र गति होती है, यह उसने जाना नहीं, इसलिए पूर्ण थ्योरी नहीं दे पाया। मनुष्य देह के अलावा और कोई देह नहीं है, जो मोक्ष की अधिकारी हो। मनुष्य देह मिले और मोक्ष प्राप्ति के साधन संयोग पूर्ण रूप से आ मिलें, तो काम हो जाए, पर आज के मनुष्य तो निश्चेतन चेतन हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ, तो लटू स्वरूप हैं।
लोग जिसे भावमन, द्रव्य मन मानते हैं, वह तो निश्चेतन चेतन है। शुद्ध चेतन तो ज्ञानी पुरुष दें, वही है। बाकी तो सब मशीनरी है. मिकेनिकल है। यह तो मशीनरी चलती है. उसे कहता है मैं चलाता हैं! यह तो खाली इगोइजम करता है कि मैंने यह किया। मन गाँठो का बना है। गाँठो में फल आना यानी रूपक में आना। फल यदि मिश्रचेतन के साथ का रहा, तो बवाल। मिश्रचेतन के साथ अर्थात् हम छोड़ दें, तब भी सामनेवाला नहीं छोड़ता। जब कि अचेतन को आपने छोड़ दिया, तो बस कोई झंझट नहीं। माइन्ड (मन) डॉक्टर को दिखाई दे ऐसा नहीं है, पर ज्ञानी को दिखाई दे ऐसा है। माइन्ड इस कम्पलिटली फिज़िकल। जब कि सबकॉन्शियस माइन्ड है, वह निश्चेतन चेतन है।
निश्चेतन चेतन पद को द्वैत कह सकते हैं, उसे जीव कह सकते हैं पर चेतन नहीं कह सकते। हमारे महात्माओं को शद्ध चेतन मिला है। हमारी देह तो निश्चेतन चेतन है और हम 'खुद' चेतन हैं।
जब तक शुद्ध चेतन नहीं हुआ, तब तक तू निश्चेतन चेतन है। सभी निश्चेतन चेतन ही हैं, फिर चाहे साधु हों या संन्यासी। मनुष्य, तिथंच, नारकीय जीव, देवता सारे ही निश्चेतन चेतन यानी लटू ही हैं। जब तक आत्मा का भान हुआ नहीं है, तब तक निश्चेतन चेतन। जब तक निज