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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
अनिवार्य है और अपने आप ही हो जाता है। संसार के समसरण मार्ग में तीसरे मील और चौथे फलांग पर ऐसा ही होगा।' इसका मतलब अनिवार्य रूप से ऐसा ही करना पड़ता है। अनिवार्य में पुलिसवाला डंडे मारकर करवाता है। बाहर जैसे पुलिसवाले हैं, वैसे ही भीतर भी हैं। अतः भीतरी पुलिसवाले हैं वे, सभी लटूओं को घुमाते हैं। एक दिन मैं चबूतरे पर बैठा था, तब दो-चार लोग एक बैल को खींचकर ले जा रहे थे, तब बैल की नाक कुखचने के कारण टूटी जा रही थी और ऊपर से, पीछे डंडे बरसा रहे थे। फिर भी मुआ खिसकता ही नहीं था। इस पर मैंने उन लोगों से पूछा, 'क्यों भैया ऐसा क्यों करते हो? बैल चलता क्यों नहीं है?' उन्होंने बताया, 'कल बैल को अस्पताल ले गए थे, इसलिए उसे उसका डर बैठ गया है। इसलिए आज नहीं जाता।' कुछ भी करे, मगर गए बगैर छुटकारा नहीं था। नाक खींचे, डंडे बरसे और आर चुभोएँ और जाना पड़े उसके बजाय सीधे-सीधे जाने में क्या हर्ज था? डंडे खाकर भी आख़िर तो करना ही पड़ता है, उसके बजाय खुशी-खुशी क्यों नहीं करें? संसार में सब अनिवार्य ही है, इसलिए चुपचाप सीधे-सीधे चल न। वर्ना बैल की तरह तुझे भी दुनिया डंडे मारेगी।
जगत् का अधिष्ठान सारा संसार, 'जगत् का अधिष्ठान' खोजता है, पर उसका मिलना कठिन है। 'प्रतिष्ठित आत्मा' इस संसार का सबसे बड़ा अधिष्ठान है। आज जगत् का सही अधिष्ठान नैचुरली प्रकट हुआ है, हमारे माध्यम से।
आप खुद 'शुद्धात्मा', तो दूसरा अंदर रहा कौन? अंदर की सूक्ष्म क्रियाएँ कौन करता है? वह सब प्रतिष्ठित आत्मा से होता है। प्रतिष्ठित आत्मा यानी पिछले जन्म में जो-जो कर्म किए थे, जो-जो प्रतिष्ठिाएँ की थी उनसे प्रतिष्ठित आत्मा का निर्माण हुआ। प्रतिष्ठिा कैसे की गई? 'मैं चंदभाई,''यह मेरी देह,' 'यह मेरा मन,''जो-जो कुछ हुआ वह मैंने किया।' ये सारी प्रतिष्ठिा हुई। वह फिर प्रतिष्ठित आत्मा होकर, इस जन्म में देह में आता हैं। दूसरे शब्दों में यह 'आरोपित आत्मा' है। अतः सब जगह आरोपण करता है। विसर्जन होता है, तब सूक्ष्म रूप से सर्जन करा है, वह कैसे समझ आए? जो सर्जन होता है, वह नये प्रतिष्ठित आत्मा का होता है। अब इसका कैसे पता चले?
संसार के जहर, तू लाख नहीं पीना चाहे, पर वे अनिवार्य हैं इसलिए डंडे खाकर भी पीने तो पड़ेंगे ही। रोनी सूरत करके पीने के बजाय हँसते-हँसते पीकर नीलकंठ बन जा। इससे तेरा अहंकार रस, अच्छी तरह से पिघल जाएगा और तू महादेवजी बन जाएगा। हम भी इसी तरह महादेवजी बने हैं।
भगवान महावीर को भी त्याग अनिवार्य था। उनका ऐच्छिक तो अलग ही था। वे खुद स्वतंत्र हुए थे, पुरुष हुए थे और ऐच्छिक उत्पन्न हुआ था। मगर बाहरी भाग में अनिवार्य था। इसलिए लक्ष्य नहीं चुके थे। पत्नी को छोड़ा, वह भी भगवान को अनिवार्य था, इसलिए छोड़ा था। लोग उसे ऐच्छिक मानते हैं। हमारे महात्मा जो अनिवार्य रूप से करते हैं, वह वैभव और ऐच्छिक करते हैं, वह मोक्ष। वैभव के साथ मोक्ष, ऐसा यह दादा भगवान का 'अक्रम ज्ञान' है।
प्रतिष्ठित आत्मा कब कहलाता है? जब अहंकार (मैं) और ममता (मेरा) दोनों को साथ मिलाएँ तब। 'यह मैं नहीं हूँ' और 'यह नहीं है मेरा', वह निर्विकारी है। 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है', वह विकारी संबंध है। विकारी संबंध प्रतिष्ठित आत्मा का है। शुद्धात्मा तो निर्विकारी है।
प्रतिष्ठित आत्मा ही यह सब कर रहा है। 'शुद्धात्मा' कुछ भी नहीं करता है। चलना-फिरना, वे सभी अनात्मा के गणधर्म हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा रात में भी सोता नहीं है और दिन में भी सोता नहीं है। अनात्म भाग सोता है। जो क्रिया करता है, वही सोता है। जो क्रिया करता है, उसे रेस्ट की जरूरत है। शुद्धात्मा तो क्रिया करता ही नहीं, उसे रेस्ट की क्या ज़रूरत? रेस्ट कौन खोजेगा? जो रेस्ट में इन्टरेस्टेड होता है। वह कौन है? प्रतिष्ठित आत्मा। ये सारी क्रियाएँ प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। प्रतिष्ठित आत्मा को नींद ठीक से आई या ठीक से नहीं आई यह जाना किस ने? उसकी क्रियाएँ जानी किस ने? शुद्धात्मा ने। शुद्धात्मा, प्रतिष्ठित