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आप्तवाणी-१
ही है। तब अभागा गद्दी पर बैठकर, 'अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा, अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा' ऐसा सोचा करता है और अपना ध्यान खराब करता है।
यदि मन में ऐसा नक्की किया हो कि मुझे चोखा, बिना मिलावट का धंधा करना है, तो ऐसा आ मिलेगा। भगवान ने कहा है कि खाने की चीज़ों में और सोने में मिलावट करना भयंकर गुनाह है।
कच्छी लोगों को भी ये ट्रिकें आज़माने का भयंकर रोग लग गया है। वे तो बनियों को भी मात दें ऐसे हैं।
आजकल तो जमाना ही ऐसा है कि ट्रिकवालों के बीच ही रहना पडता है, फिर भी लक्ष्य में निरंतर यही रहना चाहिए कि हम ट्रिकों में से कैसे छूटें। यदि यह लक्ष्य में रहा, तो पश्चाताप द्वारा बड़ी जिम्मेदारी से छूट जाएँगे और ऐसे संयोग भी प्राप्त होंगे कि आपको एक भी ट्रिक आज़मानी नहीं पड़ेगी और व्यापार भी सुचारु रूप से चलेगा। फिर लोग भी आपके काम की सराहना करेंगे।
यदि हमें मोक्ष में जाना है, तो ज्ञानी के कहे अनुसार करना चाहिए और यदि मोक्ष में नहीं जाना है, तो ज़माने के अनुसार करना। पर मन में इतना खटका अवश्य रखना कि मुझे ऐसा टिकवाला काम नहीं करना है, तो वैसा काम आ मिलेगा। व्यापार में तो ऐसा होना चाहिए कि छोटा बच्चा आए, तो उसके माता-पिता को ऐसा भय नहीं रहना चाहिए कि बच्चा ठग लिया जाएगा।
लक्ष्मीजी की कमी क्यों है? लक्ष्मी की कमी क्यों है? चोरियों से। जहाँ मन-वचन-काया से चोरी नहीं होगी, वहाँ लक्ष्मीजी की मेहर होगी। लक्ष्मी का अंतराय चोरी से है।
ज्ञान जानने पर प्रकाश में आता है कि क्या करने से खुद सुखी होता है और क्या करने से दु:खी होता है? अक्लमंद तो ट्रिक आजमाकर सब बिगाड़ते हैं।
ट्रिक शब्द ही डिक्शनरी में नहीं होना चाहिए। 'व्यवस्थित' का ज्ञान किस लिए दिया गया है? 'व्यवस्थित' में जो हो सो भले हो। ग्यारह सौ रुपये मुनाफा हो, तो भले हो और घाटा हो, तो भी भले हो। सत्ता 'व्यवस्थित' के हाथों में है, हमारे हाथों में सत्ता नहीं है। यदि सत्ता हमारे हाथों में होती, तो कोई सिर के बाल सफेद होने ही नहीं देता। कोई भी ट्रिक खोज निकालते और बालों को काले के काले ही रखते।
बिना ट्रिक का मनुष्य सरल दिखता है। उसका मुख देखकर ही प्रसन्न हो जाएँ। पर ट्रिकवाले का मुख तो भारी लगता है मानो अरंडी का तेल पीया हो। खुद के, 'शुद्धात्मा' होने के बाद, यह सारा माल साफ करना पड़ेगा न? जितना लिया, उतना, दिया तो करना पड़ेगा न? ट्रिक से भरा हुआ माल, मार खाकर भी वापिस तो करना ही पड़ेगा न? इसलिए तो हम कहते हैं कि 'ऑनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी एण्ड डिसऑनेस्टी इस द वर्स्ट फूलिशनेस'
बुद्धिक्रिया और ज्ञानक्रिया जो-जो अशुद्ध, अशुभ या शुभ जाने, वह बुद्धिक्रिया है, ज्ञानक्रिया नहीं। ज्ञानक्रिया तो केवल शुद्ध को ही देखती है और जानती है। बुद्धि ज्ञेय को ज्ञाता मनवाती है। 'मैं चंदूलाल हूँ, वह ज्ञेय है, उसे ही ज्ञाता मनवाती है, वह बुद्धि है। उसमें अहंकार मिला ही होता है। ज्ञेय को ज्ञाता माने। बुद्धिक्रिया को ही ज्ञानक्रिया मान ले, तो फिर मोक्ष का अनुभव कैसे कर पाएँगे?
बुद्धि से, बिलकुल सामिप्य भाववाला दिखता है। फिर भी बुद्धि की बिसात ही नहीं है कि ज्ञेय को ज्ञेय और ज्ञाता को ज्ञाता देख सके। क्योंकि बुद्धि स्वयं ज्ञेय स्वरूप है, इसलिए रियल सत्य को नहीं देख सकती। संसार का आदि-अंत है ही नहीं। उसको लेकर सभी ने बुद्धि
पैसे कमाने के लिए अक्ल इस्तेमाल नहीं करनी होती। अक्ल तो लोगों की भलाई करने में ही इस्तेमाल की जानी चाहिए।