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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
में जाती हों, वहाँ से वापस लाना चाहें, तो उलटे उसी मुहल्ले की और
खची चली जाती थीं। ऐसी वृत्तियाँ निज घर में वापस लौटती हैं, यही अजूबा है न? चित्तवृत्तियाँ जितनी जगह भटकेंगी, उतनी जगह देह को भी भटकना पड़ेगा। क्रमिक मार्ग में तो मन के अनंत पर्याय और फिर चित्त के अनंत पर्याय पार करते-करते, रिलेटिव अहंकार तक पहुँचते हैं (आईने में देखने जैसा) और आपको तो हमने यह सब पार करवाकर सीधे स्वरूप में बिठा दिया है, निज घर में!
निज घर की खोज में चित्त भटकता रहता है। इसलिए वह जो देखता है, उसीमें सुख खोजता है। जहाँ-जहाँ पर चित्त स्थिर होता है, वहाँ-वहाँ अंत:करण का शेष भाग शांत रहता है, इसलिए सुख लगता है। मगर स्थिर रहता कितनी देर है? चित्त फिर दूसरी जगह जाता है। उसे वहाँ सूख लगता है और पहलेवाला सुख दुःखदायी हो जाता है, क्योंकि जिस बाह्य सुख की खोज में है वह पारिणामिक रूप से दु:खदायी है। क्योंकि बुद्धि बिना आरोप किए नहीं रहती कि इसमें सुख नहीं है, दुःख है। अत: चित्त पुनः भटकता है। जब तक चित्तवृत्ति निज घर में स्थिर नहीं होती, तब तक इसका अंत आनेवाला नहीं है। सच्चा सुख जब चखे, तब काल्पनिक सुख अपने आप फीके पड़ जाते हैं। फिर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है, और उसे जैसा है वैसा देखनेवाला और जाननेवाला शुद्ध चित्त है। अशुद्ध चित्त के पर्याय फिर धीरे-धीरे कम होते-होते बंद ही हो जाते हैं। और फिर केवल शुद्ध चित्त के पर्याय रहते हैं, वही 'केवलज्ञान'।
ज्ञानी पुरुष अशुद्ध चित्त को हाथ नहीं लगाते। केवल खुद का शाश्वत सुख, अनंत सुख का कंद है, वह चखा देते हैं, ताकि निज घर मिलते ही शुद्ध चित्त, जो कि शुद्धात्मा है, प्राप्त हो जाता है और शुद्ध चित्त ज्यों-ज्यों शुद्ध और शुद्ध को ही देखता है, त्यों-त्यों अशुद्ध चित्तवृत्ति फीकी पड़ते-पड़ते, आख़िर में केवल शुद्ध चित्त ही शेष रहता है। फिर अशुद्ध चित्त के पर्याय बंद हो जाते हैं। फिर जो शेष रहता है, वह केवल शुद्ध पर्याय।
ज्ञानी ही शुद्ध आत्मा दे सकते हैं अशुद्ध चित्त की शुद्धि करने के लिए संसार के सारे धर्म प्रयत्न में लगे हैं। साबुन से मैले कपड़ों को धोकर साफ किया जाता है, वैसे। पर साबुन कपड़ों का मैल तो निकालेगा, पर फिर अपना मैल छोड जाएगा। फिर साबुन का मैल निकालने, टीनोपाल चाहिए। टीनोपाल साबुन का मैल निकाल देता है, पर अपना मैल छोड़ जाता है। अंत तक मैल साफ करनेवाली चीज़ अपना मैल, साफ होनेवाली वस्तु पर छोड़ता ही जाएगा। ऐसा संसार के सभी रिलेटिव धर्मों में होता है। जहाँ अंत में शुद्ध किए जानेवाले चित्त के ऊपर भी आखिर में अशुद्धि, मैल रहता ही है। संपूर्ण शुद्ध तो वही कर सकता है जो स्वयं संपूर्ण शुद्ध, सर्वांग शुद्ध है। इसलिए ऐसे ज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं। इसलिए प्रत्येक शास्त्र अंत में कहता है कि तुझे आत्मा प्राप्त करना है, तो ज्ञानी के पास जा। वे ही शुद्ध आत्मा दे सकते हैं। हमारे पास तो मिलावटवाला आत्मा है, अशुद्ध आत्मा है, जिसकी कोई क़ीमत ही नहीं हैं।
मोक्षमार्ग में, मन को कुछ भी करने जैसा नहीं है। मात्र चित्त को ही शुद्ध करना है। तभी हल निकलेगा। कुछ लोग बिना समझे मन के पीछे पड़ते हैं और उसे वश करने जाते हैं। उनके व्य पॉइन्ट से वह ठीक है, पर यदि मोक्ष चाहते हों, तो फेक्ट जानना होगा और फेक्ट से वह पूर्णतया गलत है। चित्त शुद्ध होने के बाद मन के साथ कोई लेना-देना ही नहीं रहता। फिर तो शुद्ध चित्त मन की फिल्म देखता रहता है।
इस संसार में मन को रोकने के स्थान हैं, पर चित्त को रोकने के स्थान नहीं हैं। लोग ताश खेलते हैं, वह क्या है? उसमें क्या सुख है? लोगो ने उसमें चित्त को रोकने का स्थान खड़ा किया है। मगर पत्ते खेलने में चित्त को रोकना तो पतन है। इससे आगे चलकर धीरे-धीरे और ज्यादा गिरते जाते हैं। मगर पत्तों में भी चित्त कितना समय रोक पाते हैं? क्या उसमें भी अंत में असुख पैदा नहीं होता?
चित्त ही अपनी मनचाही जगह पर और भय के स्थानों में विशेष