Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 70
________________ आप्तवाणी-१ ११७ ११८ आप्तवाणी-१ गुस्सा आता है। मगर उसमें गुस्सा करने को क्या रहा? हमें अब गुस्सा करने जैसा रहता ही नहीं है। अहंकार का जो रस है, उसे खींच लेना अपमान किसी को पसंद नहीं आता, पर हम कहते हैं कि वह तो बहुत हैल्पिंग है। मान-अपमान तो अहंकार का कड़वा-मीठा रस है। अपमान करता है, वह तो आपका कड़वा रस खींचने आया है। 'आप कमअक्ल हैं', ऐसा कहा, मतलब, सामनेवाले ने वह रस खींच लिया। जितना रस खींच लिया उतना अहंकार टा और वह भी बिना मेहनत के दूसरे ने खींच दिया। अहंकार तो रसवाला है। जब अनजाने में कोई निकाले तब अगन लगती है इसलिए जानकर सहज रूप से अहंकार को कटने देना। सामनेवाला सहज रूप से खींच देता हो, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है? सामनेवाले ने कितनी बड़ी हेल्प की। जैसे बने वैसे सारा रस पिघला दें, तो निकाल हो जाए। अहंकार तो काम का है, वर्ना संसार व्यवहार कैसे चलेगा? अहंकार को केवल नीरस बना देना है। हमें जिसे धोना था, उसे दूसरों ने धो दिया. वही हमारा मुनाफ़ा। हम ज्ञानी पुरुष अबुध होते हैं और ज्ञानी के पास इतनी शक्ति होती है कि वे खुद ही अहंकार का रस खींच डालें। जब कि आपके पास ऐसी शक्ति नहीं होती। इसलिए आपको तो कोई अपमान करके सामने से अहंकार का रस खींचने आए, तो खुश होना चाहिए। आपकी कितनी मेहनत बच जाए? आपका तो काम हो जाए। हमें तो, फायदा कहाँ हुआ यही देखना है। यह तो गजब का मुनाफा हुआ ऐसा कहलाएगा। यदि आपका कड़वा-मीठा रस नीरस हो गया हो, तो अहंकार का स्वभाव तो नाटकीय है। वह सारा का सारा काम कर देगा। अहंकार को खतम नहीं करना है, उसे, नीरस करना है। भोजन करते समय औरों को एन्करेज करने के लिए ऐसा भी कहना पड़ता है कि अहह ! कढ़ी तो बहुत मज़ेदार बनी है! हँसते मुख जहर पीए सामनेवाले का अहंकार हम से कटे, तो उसे कड़वा लगता है। मगर कुल मिलाकर मुनाफ़ा क्या है, इसकी हमें खबर होने के कारण, किसी को हमारे कारण कड़वा लगे ऐसा नहीं हो, तो अच्छा है। 'हसते मुखे झेर पीए, नीलकंठी खानदान, निःस्पृह अयाचकने, खपे नही मान-तान।' (हँसते मुख जहर पीए नीलकंठी खानदान, नि:स्पृह अयाचक को चाहिए न मान-तान।) हम नीलकंठ हैं। बचपन से जो भी कोई ज़हर दे गया, वह हम हँसते-हँसते पी गए और ऊपर से आशीर्वाद भी दिया और इसलिए ही हम नीलकंठ हुए। जहर तो आपको पीना ही पड़ेंगा। हिसाबी है, इसलिए प्याला तो सामने आएगा ही। फिर आप हँसते-हँसते पीएँ या मुँह बिगाड़कर पीएँ, पीना तो पड़ेगा ही। अरे, आप लाख पीना नहीं चाहें, तब भी लोग जबरदस्ती पिलाएँगे। तो फिर हँसते-हँसते पीकर ऊपर से आशीर्वाद देकर क्यों नहीं पीएँ? इसके बिना नीलकंठ कैसे हो पाएँगे? जो प्याला दे जाते हैं, वे तो आपको ऊँचा पद देने आते हैं। वहाँ पर यदि आप मँह बिगाड़ेंगे, तो वह पद आपसे दूर चला जाएगा। हम तो, सारे संसार में से जिसजिसने जहर के प्याले दिए, उन्हें हँसते-हँसते. ऊपर से आशीर्वाद देकर पी गए और महादेवजी हुए। ___'मैं चंदूलाल हूँ', तब तक सब कड़वा लगता है। पर हमारे लिए तो यह सब अमृत हो गया है! मान-अपमान, कड़वा-मीठा वे सारे द्वंद्व हैं। जो अब हमें नहीं रहे, हम द्वंद्वातीत हैं। इसलिए तो यह सत्संग करते हैं न? आखिरकार तो सभी को द्वंद्वातीत दशा ही प्राप्त करनी है न? सामनेवाला यदि कड़वा पिलाए और आप हँसते हुए आशीर्वाद देकर पी जाएँ, तो एक ओर आपका अहंकार स्वच्छ होता है और आप

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