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आप्तवाणी - १
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किस काम का ? 'ज्ञेय' जब 'ज्ञाता' हो जाए, तो वही जागृति है। वही अदीठ तप है। अहंकार का रस पिघलाने के लिए जो जागृति रखनी पड़ती है, वही अदीठ तप है।
अंतराय बाहर से आते हैं, वैसे अंदर से भी आते हैं। अहंकार अंतराय रूप है। उसके सामने तो अच्छी तरह तैयार हो जाना पड़ेगा।
कोई मान दे तो भी सहन हो, ऐसा नहीं है। जिसे अपमान सहन करना आया, वही मान सहन कर सकता है। किसी ने दादाजी से पूछा कि लोग आपको फूल चढ़ाते हैं, उन्हें आप क्यों स्वीकार करते हैं? तब दादाजी ने कहा, 'ले तुझे भी चढ़ाते हैं, पर तुझसे सहन नहीं होगा।' लोग तो मालाओं का ढेर देखकर दंग हो जाएँगे। किसी के पैरों को छूने जाएँ, तो वह तुरंत खड़ा हो जाएगा।
मान-अपमान का खाता
'जब अपमान का भय नहीं रहेगा, तब कोई अपमान नहीं करेगा', यह नियम ही है। जब तक भय हैं, तब तक व्यापार । भय गया कि व्यापार बंद। अपने बहीखाते में मान और अपमान का खाता रखो। जो कोई मानअपमान देकर जाए उसे बहीखाते में जमा करते जाओ, उधार मत करना । चाहे कितना भी बड़ा या छोटा डोज़ कोई दे जाए, तो उसे बहीखाते में जमा कर लेना । पक्का करो कि महीनेभर में सौ के बराबर अपमान जमा कर लेने हैं। जितने ज्यादा आएँ, उतना अधिक मुनाफ़ा। यदि सौ के बजाय सत्तर मिलें, तो तीस का घाटा। फिर दूसरे महीने में एक सौ तीस जमा करना। जिसके खाते में तीन सौ अपमान जमा हो गए, उसे फिर अपमान का भय नहीं रहता। वह फिर पार उतर जाता है। पहली तारीख से बहीखाता चालू कर ही देना। इतना होगा या नहीं होगा?
ज्ञानी पुरुष को हाथ जोड़े, उसका अर्थ यह कि व्यवहारिक अहंकार शुद्ध किया और उनके अँगूठे पर मस्तक लगाकर सच्चे दर्शन किए, उसका अर्थ अहंकार अर्पण किया। जितना अहंकार अर्पण होता है, उतना काम बन जाता है।
आप्तवाणी - १
ज्ञानी पुरुष में दया नामक गुण नहीं होता, उनमें अपार करुणा होती है। दया तो अहंकारी गुण है। दया अहंकारी गुण कैसे? दया द्वंद्व गुण है । द्वंद्व अर्थात् दया हो, तो उसमें निर्दयता अवश्य भरी पड़ी होती है। वह तो जब निर्दयता बाहर निकले, तब पता चलता है। तब तो सारा बाग उजाड़ देता है। सारे के सारे सौदे कर डालता है। घर-बार, बीवी-बच्चे सब छोड़ देता है। सारा संसार द्वंद्व गुण में है। जब तक द्वंद्वातीत दशा प्राप्त नहीं हुई है, तब तक संसार के लिए दया का गुण प्रशंसनीय वस्तु है । क्योंकि वह उसकी नींव है फिर भी दया रखनी जरूरी है। मगर खुद की सेफसाइड के लिए भगवान की सेफसाइड के लिए नहीं। लोगों पर दया करने जो निकल पड़ते हैं, वे खुद ही दया के पात्र हैं। अरे, तू तेरे पर ही दया कर न, औरों पर दया क्यों करता है? कुछ साधु संसारी पर तरस खाते हैं। अरे! इन संसारियों का क्या होगा? उनका जो होना होगा, सो होगा। उन पर तरस खानेवाला तू कौन? तेरा क्या होगा ? अभी तेरा ही कोई ठिकाना नहीं है, तो लोगों के लिए ठिकाना ढूंढने क्यों निकला है ? यह तो भयंकर कैफ है। संसारियों का कैफ तो तेल और शक्कर के लिए लगी कतारों में आठ घंटे खड़े रहें, तो उतर जाएगा, पर इन साधु महाराजों का कैफ कैसे उतरेगा ? उलटे बढ़ता ही जाएगा। निष्कैफी का मोक्ष होता है, ऐसा भगवान ने कहा है। कैफ तो अत्यधिक सूक्ष्म अहंकार है, जो बहुत मार खिलाता है। स्थूल अहंकार को तो कोई न कोई दिखला देगा। कोई कहनेवाला निकल आएगा कि छाती तानकर क्या घूम रहा है? ज़रा मुंडी नीची रखा कर न? तो वह संभल जाएगा। पर यह सूक्ष्म अहंकार, ‘मैं कुछ जानता हूँ, मैंने कुछ साधन पा लिया है, मैं कुछ जानता हूँ', ऐसा कैफ तो कभी नहीं जानेवाला। 'जान लिया' किसे कहते हैं? ज्ञान प्रकाश हो तब और प्रकाश में ठोकर लगती है? यह तो पग-पग पर ठोकरें लगती हैं, वह 'जान लिया' कैसे कहलाएगा? खुद ही अज्ञान दशा में ठोकरें खाता हो, उसे दूसरों पर तरस खाने का क्या अधिकार है?
अहंकार का जहर
कुछ प्राप्ति का अहंकार आया कि गिर ही पड़ा समझो। ज्ञान का
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