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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
गतिफल - ध्यान और हेतु से भगवान क्या कहते हैं? हम तेरी क्रियाओं को नहीं देखते हैं। वह तो उदयकर्म ही करवाता है। किन्तु सामायिक करते, प्रतिक्रमण करते, तेरा ध्यान कहाँ रहता है, उसको ही देखा जाता है। सामायिक करता हो मगर ध्यान तो घड़ी पर हो या शिष्य के ऊपर चिढ़ता रहता हो और ऊपर से कहता है कि मैंने सामायिक किया।
भगवान महावीर के सामने आचार्य महाराज बैठे थे। उन्हें ज्ञान (आत्मज्ञान) दिया था। केवल एक 'व्यवस्थित' का ही ज्ञान नहीं दिया था। वे महाराज सामायिक में बैठे थे। तब अन्य महात्माओं ने पूछा, 'महाराज, इन आचार्य की क्या गति होगी?'
भगवान बोले, 'इस समय देवगति में जाएँगे।'
थोड़ी देर बाद फिर से किसी ने पूछा 'महाराज, अब इस समय ये आचार्य को कौन-सी गति होगी?'
यदि उसमें 'खद' तन्मयाकार हुआ. तो वहाँ हस्ताक्षर कर दिए। पर तन्मयाकार नहीं हो और जागृति रखें और जो चित्रीकरण होता हो, उसे केवल देखा करता है और जाने तो उस चित्रीकरण से मुक्त ही है।
एक व्यापारी कपड़ा खींचकर नापता है और ऊपर से खुश होता है कि मैं व्यापार में कितना होशियार हूँ, मैं कितना कमाता हूँ। पर उसे मालूम नहीं कि वह नर्कगति बाँध रहा है, क्योंकि यह उसका रौद्रध्यान है। अब दूसरा व्यापारी भी कपड़ा खींचकर देता है, उसी ही ध्यान से। पर मन में उसे अपार पश्चाताप रहता है कि यह गलत करता हूँ। महावीर का भक्त ऐसा नहीं करता। वह तिर्यंच गति बाँधता है। क्रियाएँ समान हैं, पर ध्यान अलग-अलग होने से गति अलग-अलग होती है।
इस काल में स्वरूप का ज्ञान तो किसी को है ही नहीं। यदि कोई धर्म समझता होता, तो भी धर्मध्यान रहता, अथवा तो धर्मध्यान हो सकता था। आज जो ये लौकिक धर्म हैं, वे भी मूल नींव (सिद्धांत) पर नहीं है। इसलिए संसार के लोगों को धर्मध्यान भी नहीं है। केवल आर्त और रौद्रध्यान में ही हैं। संसार के लोग कहते हैं कि सेठ ने तो पचास हजार का दान किया, बहुत अच्छा किया। पर सेठ के मन में क्या होता है कि यदि यह नगरसेठ के दबाव में नहीं आया होता, तो हमें देना नहीं पड़ता। यह तो ज़बरदस्ती देने पड़े। इस तरह रौद्रध्यान करता है, नर्कगति बाँधता है। दूसरे मनुष्य के पास पैसा नहीं है फिर भी ऐसा ध्यान धरता है कि कब मेरे पास पैसे आएँ, और कब धर्म में दो पैसे खर्च करूँ? अतः वह बिना दान किए ऊर्ध्वगति बाँधता है। और उस मुर्ख ने तो पचास हजार देकर भी नर्कगति का ध्यान किया।
बुद्धि के उपयोग की मर्यादा ये लोग बुद्धि का गलत उपयोग करके, ट्रिक-चालाकी करके जो पैसा कमाते हैं, वह तो बहुत बड़ा गुनाह है। जितनी ट्रिकें (दांव-पेच) करीं, उतना हार्ड (भारी) रौद्रध्यान। ट्रिक यानी सामनेवाले की कम बुद्धि का अपनी अधिक बुद्धि से फायदा उठाना।
तब भगवान बोले, 'अधोगति में जाएँगे।'
उसके पंद्रह मिनिट बाद फिर पूछा, 'इस समय अब कौन-सी गति में जाएँगे?'
तब भगवान ने कहा, 'अब मोक्ष में जानेवाले है।'
'ऐसा क्यों भगवान? यह संपूर्ण ध्यान में हैं, फिर ऐसा क्यों?' तब भगवान ने कहा, 'हमें जो दिखाई देता है, वह तुम्हें दिखाई नहीं देता और तुम्हें जो दिखाई देता है, उसे हम देखते नहीं है। देखो, वह सामायिक में बैठा तो था, पर उसका ध्यान कहाँ बरतता है, उसे हम ही देख सकते हैं। पहले ध्यान में देवगति का चित्रीकरण (चिंतनधारा) था। दूसरी बार नर्कगति का चित्रीकरण था। फिर उसने संदर चित्रित करना (चिंतन करना) शुरू किया। भीतर फ़ोटो अच्छी निकलने लगी, जो मोक्ष में जाए ऐसी थी।' ध्यान पर फल का आधार है। चित्रित करता है पुद्गल, परंतु