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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
बहुत एक्सेस हो जाए, तो देह के ऊपर भी फूट निकलती हैं, ट्यूमर्स कहते हैं उन्हें।
की गाँठ को पोषण नहीं मिलता। अगले जन्म के लिए, चोरी नहीं करनी, ऐसे बीज बोता है। अतः वह दूसरे जन्म में चोरी नहीं करेगा।
मन जो-जो विचार दिखाता है, उस में खुद अज्ञानता से संकल्प विकल्प करता है, उसके फोटो पड़ते हैं। उसकी नेगेटिव फिल्म तैयार होती है और जब वह रूपक में आता है। तब वह परदे पर पिक्चर देखता है, ऐसा होता है। सिनेमा हॉल में जो फिल्म देखते हैं, वहाँ तो तीन घंटे के बाद, 'दी एन्ड' दिखाते हैं। वह एन्डवाला फिल्म है, जब कि मन का फिल्म अंतहीन है। जब उस का 'दी एन्ड' होता है, तब मोक्ष होता है। इसलिए तो कवि ने औरंगाबाद में, सिनेमा हॉल के ओपनिंग में गाया
स्व-स्वरूप और मन बिलकुल भिन्न ही हैं और कभी भी एक नहीं हो सकते । जब मनचाहे विचार आते हैं, तब भ्रांति से ऐसा लगता है कि मैं विचार करता हूँ, मेरे विचार कितने अच्छे हैं और जब अनचाहे विचार आते हैं, तब कहता है कि मुझे बहुत बुरे विचार आते हैं। मना करता हूँ, फिर भी आते हैं। वह क्या सूचित करता है? अच्छे विचार करनेवाला तू
और बुरे विचार आने पर कहता है कि मैं क्या करूँ? यदि स्वयं ही विचार करता हो, विचार करने की खुद की सत्ता होती, तो हर कोई मनचाहे विचार ही करता। अनचाहे विचार कोई करता ही नहीं। पर ऐसा होता है? नहीं। वह तो, मनचाहे और अनचाहे, दोनों ही विचार आएँगे ही!
कार्य प्रेरणा मन से है कितने ही कहते हैं कि चोरी करने की मुझे, भीतर से भगवान प्रेरणा देते हैं। यानी तू साहूकार और भगवान चोर, ऐसा? मुए, भगवान कहीं ऐसी प्रेरणा देते होंगे? भगवान तो चोरी करने की प्रेरणा भी नहीं देते और न ही चोरी नहीं करने की प्रेरणा देते है। वे क्यों तुम्हें प्रेरित करके चोर ठहरें? कानून क्या कहता है कि जो प्रेरित करे, वह चोर !
भगवान ऐसी बातों मे हस्तक्षेप करते होंगे कहीं? वे तो ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी। सबकुछ देखते और जानते हैं। तब वह प्रेरणा क्या होती होगी? वह तो भीतर में चोरी करने की गाँठ फूटती है, तब तुझे चोरी करने का विचार आता है। गाँठ बड़ी रही, तो बहुत विचार आएँगे और चोरी करके भी आएगा। फिर कहेगा, मैंने कैसी चालाकी से चोरी की। ऐसा कहने पर चोरी की गाँठ को पुष्टि मिलती है। पोषण मिले, तो नये बीज पड़ते हैं और चोरी की गाँठ और बड़ी होती जाती है। अब एक दूसरा चोर है, वह चोरी करता है, पर साथ-साथ वह भीतर पछताता है कि यह चोरी होती है वह बहुत गलत हो रहा है, पर करूँ भी तो क्या? पेट भरने को करना पड़ता है। वह दिल से पश्चाताप करता रहे, तो चोरी
_ 'तीन घंटे का फिल्म दिखावा दुनिया भर में चलते हैं, किन्तु मन के फिल्मों का 'दी एन्ड' को मोक्ष ही कहते हैं।'
लोग तो मन को वश में करने निकले हैं। अनचाही फिल्म दिखती है, तब उसे काटता रहता है। कैसे कटे? वह तो फिल्म उतारते समय ही चौकस रहना था न? मन तो एक फिल्म है। फिल्म में जो आए उसे देखना और जानना चाहिए। उसमें रोना या हँसना नहीं चाहिए। कुछ तो फिल्म में, किसी की बीवी मर जाए, तो कर्सी में बैठे-बैठे रोने लगते हैं। मानों खुद की ही बीवी नहीं मर गई हो! उसमें रोना नहीं चाहिए। वह तो फिल्म है।
ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध हम तो मन की फिल्म देखते और जानते हैं। क्या-क्या विचार आए और गए उन्हें देखते और जानते हैं। हमारा विचारों से केवल हाथ मिलाने तक का ही संबंध होता है। शादी नहीं कर लेते उनसे। महावीर भगवान भी ऐसा ही करते थे। उन्हें तो विचार आते दिखाई देते और जाते दिखाई देते थे। आते और चले जाते। उन्हें भी विचार अंत तक आते थे। विचार हैं, तो तू है। वे ज्ञेय हैं और तू ज्ञाता है। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है। यदि