Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 49
________________ आप्तवाणी-१ ७६ आप्तवाणी-१ मन कैसा है? विचार क्या है? अब, यह मन क्या है? उसका स्वरूप क्या है? यह समझाता हूँ। मन तो ग्रंथि है। गाँठों का बना है। मन सूक्ष्म है। अणु भी नहीं और परमाण भी नहीं। दोनों के बीच का स्टेज है। जो-जो अवस्था खडी होती है, उस में तन्मय हो जाता है। उस अवस्था में राग या द्वेष करे तब उस 'अवस्था' में 'अवस्थित' होता है। इसलिए 'कारण मन' के रूप में तैयार होता है और उसका जो फल आता है, वह फल 'व्यवस्थित' देता है। वह 'कार्य मन' के रूप में होता है। हरेक का अलग-अलग मन होता है, क्योंकि 'कारण मन' अलग-अलग होता है। 'अवस्था' में जितना ज्यादा 'अवस्थित' होता जाता है उतनी अधिक मात्रा में परमाणु इकट्ठा होते जाते हैं और उसकी ही ग्रंथि बनती है। 'मन ग्रंथि स्वरूप है।' जब ग्रंथियाँ 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर टाइमिंग का संयोग मिलते ही फूटती हैं, तब वह विचार कहलाता है। विचार पर से मन का स्वरूप समझ सकते हैं कि गाँठ किस की पड़ी है। विचार आता है, उसे पढ़ा जा सकता है। मनचाहे विचार आते हैं, उसमें राग करते हैं और अनचाहे विचार आते हैं, उन पर द्वेष करते हैं और कहते हैं कि हम मन को वश करने जाते हैं। मन तो कभी भी वश हो ही नहीं सकता। मन को तो ज्ञान से ही बांध सकते हैं। जैसे पानी सुराही में बंधता है वैसे। मन को वश करना तो सबसे बड़ा विरोधाभास है। खुद चेतन है और मन अचेतन है, उन दोनों का मेल कैसे हो सकता है? वह तो चेतन, चेतन का कार्य करे और मन को मन का कार्य करने दें, तो ही हल निकले। हाँ, जागति इतनी रखनी कि मन के कार्य में दखल नहीं करना है, तन्मय नहीं होना है। मन की गाँठे कैसी होती हैं, इसे आपको मैं समझाता हूँ। एक खेत में गरमी के मौसम में गए हों, तो आपको खेत साफ-सुथरा दिखाई देगा। यह देखकर आप मान लेंगे कि मेरा खेत एकदम साफ है। तब मैं कहूँगा, 'नहीं, भैया, अभी बरसात आने दे, फिर देखना।' बरसात होते ही बाड़ों के पास और हर जगह तरह-तरह की बेलें निकल आएँगी। कंकोड़े की, करेले की, कुंदरू की और जंगली बेलें ऐसी तरह-तरह की बेलें फूट निकलेंगी, ये बेलें कहाँ से अंकुरित हुई? वहाँ हरेक बेल की गाँठ थी, जो बरसात का संयोग आ मिलते ही फूट निकली। फिर आप खेत को चोखा करने मूल सहित बेलें उखाड़ फेंकते हैं और खुश होते हैं कि अब मेरा खेत साफ हो गया, तब मैं कहूँ, 'नहीं अभी तीन साल तक, बरसात होने के बाद देखते रहो और उसके बाद यदि बेल नहीं उगे, तभी आपका खेत चोखा हुआ कहलाएगा।' उसके बाद ही निग्रंथ होता है। वैसे ही यह मन भी गाँठों का बना है। जिसकी गाँठ बड़ी, उसके विचार ज्यादा आएंगे। जिसकी गाँठ छोटी, उसके विचार बहुत कम आएंगे। जैसे कि एक बनिए के बेटे से पूछे कि तुझे माँसाहार के विचार कितनी बार आया? तो वह कहेगा, 'मेरी बाइस साल की उम्र में चारपाँच बार आए होंगे।' इसका अर्थ यही कि उसकी मांसाहार की गाँठ छोटी है, सुपारी जितनी। जब कि एक मुसलमान के बेटे से पूछे, तो वह कहेगा, 'मुझे तो रोज कितनी ही बार मांसाहार के विचार आते हैं।' उसका अर्थ यह कि उसकी मांसाहार की गाँठ बहुत बड़ी है। सूरन की गाँठ जैसी। जब तीसरे किसी जैन के बेटे से पछे तो कहेगा, 'मुझे जिंदगी में मांसाहार का विचार ही नहीं आया।' उसका अर्थ यही कि उसमें मांसाहार की गाँठ ही नहीं है। अब आपसे कहा जाए कि एक महीने का ग्राफ बनाकर लाइए। ग्राफ में नोट करें कि सबसे अधिक किस विषय के विचार आए? फिर दूसरे नंबर पर किस के विचार आए? ऐसे नोट करते जाओ। फिर एक सप्ताह का ग्राफ बनाकर लाओ, और फिर एक दिन का ग्राफ बनाकर लाओ। इस पर से आपको पता चल जाएगा कि किस-किस की गाँठे अंदर पड़ी हैं और कितनी-कितनी बड़ी हैं। बड़ी-बड़ी गाँठें तो पाँच दस ही होती हैं, जो बाधक हैं। छोटी-छोटी गाँठें बहुत बाधक नहीं हैं। इतना कर सकते है कि नहीं? हमारे एक भी गाँठ नहीं होती, हम निग्रंथ हैं। मनुष्य मात्र गाँठदार लकड़ी कहलाता है। उससे फर्निचर भी नहीं बनता। अब ये मन की गाँठे

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