Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 56
________________ आप्तवाणी - १ मन के आगे डाट लगा देते हैं, इसलिए नया मन चार्ज नहीं होता और केवल डिस्चार्ज मन ही रहता है। अतः फिर उसके इफेक्ट को ही देखना और जानना है। ८९ ये अंग्रेज, जिसे सबकॉन्शियस और कॉन्शियस माइन्ड कहते हैं, वह सभी स्थूल मन है। सूक्ष्म मन का एक परमाणु तक किसी से पकड़ा जाए ऐसा नहीं है। वह तो ज्ञानी पुरुष का ही काम है, क्योंकि वह ज्ञानगम्य है। आप सभी महात्माओं को मैंने स्वरूप का ज्ञान दिया है इसलिए आप मन से पूर्णरूप से मुक्त हो गए हैं। आपका चार्ज मन मैंने बंद कर दिया है और डिस्चार्ज मन के ज्ञाता दृष्टा बना दिया है। इसलिए अब आपके मन की अनंतगुनी अनंत अवस्थाएँ आने पर भी आप स्वस्थ रह सकते हैं। वही ज्ञान है। जो मन की अवस्था में अस्वस्थ होता है, वहाँ वह अवस्थित हो जाता है। उसीसे फिर व्यवस्थित आकर खड़ा हो जाता है, वह भोगते समय तब फिर से अस्वस्थ होता है और इस तरह परंपरा चलती ही रहती है। मन आत्मा का ज्ञेय-ज्ञाता संबंध हम अचल हैं और विचार विचल हैं। दोनों अलग हैं। ज्ञाता ज्ञेय के संयोग संबंध के अलावा हमारा और कोई संबंध नहीं है। इसलिए हम सभी से कहते हैं कि किसी भी संयोग में भाव मत बिगाड़ना। असमय अचानक मेहमान आ जाएँ, तो भी भाव मत बिगाड़ना । दाल-रोटी खिलाना पर अपना भाव मत बिगाड़ना । मन दुर्बल मत होने देना । क्रोध से तो सामनेवाले का मन टूट जाता है और फिर कभी जुड़ नहीं पाता और अनंत जन्मों भटकाता है। कहावत है न, 'मन, मोती और काँच टूटें, फिर नहीं जोड़े जा सकते।' 'मनः पर्यव ज्ञान' अर्थात् सामनेवाले व्यक्ति के मन में क्या विचार चलते हैं, उसका प्रतिघोष खुद के अंतःकरण में पड़े, पहले वह समझ आप्तवाणी - १ में आता है और फिर धीरे-धीरे स्पष्ट रूप से खुद पढ़ता, देखता और जानता है, उसे मनः पर्यव ज्ञान कहते हैं। वीतरागों की भाषा में अपने मन के प्रत्येक पर्याय को देखना और जानना वह 'मनः पर्यव ज्ञान' । हम वर्ल्ड में 'मन' के डॉक्टर हैं। देह के डॉक्टर तो हर जगह मिलेंगे पर मन का डॉक्टर खोज लाओ तो जानें। मन के रोगों से, देह के रोग उत्पन्न होते हैं। हम आपके मन के सारे रोग मिटा देते हैं, नये रोग होने से बचाते हैं और जो तंदुरुस्ती प्राप्त हुई है, उसे मेन्टेन करते हैं। आपका मन आपसे अलग कर देते हैं। फिर मन आपको परेशान नहीं करता। फिर तो मन ही आपको मोक्ष में ले जाएगा, इतना ही नहीं, वहीं मन पूर्ण रूप से आपके वश बरतेगा। बुद्धिप्रकाश ज्ञानप्रकाश सारे संसार के तमाम विषयों का ज्ञान बुद्धि में समाए और निरहंकारी ज्ञान वह ज्ञान में समाए । संसार के तमाम सब्जेक्ट्स का ज्ञान हो, मगर उसमें अहंकार रहे तो वह सारा ज्ञान बुद्धि में समाता है। अहंकारी ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान कब शून्य हो जाए, इसका कोई भरोसा नहीं है। अच्छे-अच्छे बुद्धिमान, संयोगों की चपेट में आकर बुद्ध हो गए हैं। बुद्धिवाला ही बुद्ध होता है। बुद्धि तो इनडाइरेक्ट प्रकाश है। अहंकार के मीडियम थ्रू आता है। अहंकार के माध्यम से आता है। जैसे कि सूर्य का प्रकाश छप्पर के छेद से आकर शीशे पर पड़े और उसमें से फिर परावर्तित प्रकाश बिंब पड़े, वैसा । जब कि ज्ञान तो आत्मा का डाइरेक्ट प्रकाश है, फुल लाइट है। जैसा है, वैसा दरअसल दिखाए वह ज्ञान । बुद्धि परप्रकाश है, स्वयं प्रकाशक नहीं है। जब कि ज्ञान स्वयं प्रकाशक है। खुद स्वयं ज्योतिर्मय है और सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की उसमें अनंत शक्ति है। जैसे कि सूर्य स्व पर प्रकाशक है, जब कि चंद्र पर प्रकाशक है।

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