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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
करते हैं कि राजा जैसा मन हुआ हो, उसे भिखारी मत होने देना। फूल नहीं तो फूल की पंखुडी बिखेरना पर मन को भिखारी मत बनाना। अरे! संयोग वश तो राजा भी भीख माँगता है, पर इसमें उसका मन थोड़े भिखारी हो जाता है? वह तो राजर्षि ही रहेगा। जितना मन विशाल उतनी विशाल जगह मिलती है। मन जितना संकुचित उतनी संकरी जगह मिलती
मन में ऐसा रखता है कि कम दाम में हड़प लेना है और वाणी और वर्तन से ऐसा दिखावा करता है कि वाजिब दाम से खरीदना है। जब उसका मित्र मन, वाणी और काया से ऐसा ही रखता है कि वाजिब दाम पर मिले तो खरीद लेना है। इसका परिणाम, चंदू का मित्र ऊर्ध्वगति में जाता है
और चंदू अधोगति में जाता है। मन में अलग क्यों रखा? यही मन का वक्र परिणाम। अत: उतना उसे बंधन हआ। मन-वचन-काया की भिन्नता रखते हैं, वह भगवान से छिपा नहीं रहता। यह कलियुग है इसलिए वक्र परिणाम, जो जनमधूटी में ही हरेक को कम-ज्यादा मात्रा में होते हैं।
मन का स्वभाव
यह तो ऐसा है न कि जिसकी जैसी मन की गाँठ होगी वैसा ही उसे खींचेगा। लोभी को लोभ की गाँठ होती है। दानशील को दान की गाँठ होती है। तपस्वी को तप की गाँठ होती है। त्यागियों को त्याग की बड़ी गाँठ होती है। वह गाँठ ही उन्हें त्याग करवाती है और त्यागी कहते हैं कि 'मैंने त्याग किया।' अरे, ऐसा कहकर तो तूने गाँठ को और अधिक मजबूत किया, दोहरी गाँठ लगाई। इसका अंत कब आएगा? गाँठ को तो देखना और जानना है, तू जुदा और तेरे मन की गाँठ अलग। मन हम से जुदा है, यह तो साफ पता चलता है, क्योंकि जब सोना हो, तो भीतर मन उछल-कूद करने लगता है और सोने नहीं देता। सब तरह की सोने की सुविधा उपलब्ध हो मगर शांति से सोने नहीं देता।
मन की शांति की खोज में फ़ॉरेन से लोग दौड़-दौड़कर इन्डिया आते हैं। पर ऐसे शांति कैसे होगी? ये जैन भी शांति हेतु शांतिनाथ भगवान के दर्शन को जाते हैं, पर भगवान कहते हैं कि मेरे दर्शन तो करते हैं, पर साथ-साथ जूतों के भी दर्शन करते हैं और फिर दकान के भी दर्शन किया करते हैं, इसमें शांति कैसे होगी? अरे! बेटी का नाम शांति रख दे और 'शांति, शांति' बोलता रह, तो तुझे शांति हो जाएगी!
मन के वक्र परिणाम इस काल में मनुष्य का मन अलग, उसकी वाणी अलग और उसका वर्तन भी अलग।
उदाहरण के तौर पर चंदू और उसका मित्र घूमने और शॉपिंग को निकले। तब चंदू के मन, वाणी और वर्तन तीनों अलग-अलग हैं। वह
मन का स्वभाव कैसा है? उसे, अपने से कम सुखवाला बताएँ, तो मन को ज्यादा सुख मिलता है कि खद अधिक सखी है। यदि तेरे दो रूम हैं और किसी दिन मन उछल-कूद करे कि हमारे यदि फ्लेट होता, तो अच्छा रहता। तब मन को दिखाना कि वे जो एक रूम में रहते हैं, वे कैसे रहते होंगे, उनके घर में तो बैठने को कुर्सी तक नहीं है, वे क्या करते होंगे, ताकि तेरा मन फिर खुश हो जाए। यह तो मन कभी फुरसत में हो, किसी दिन खुराक माँगे, तो हमें मन को ऐसे समझाना चाहिए। वह तो जिसका मन थोड़ा ढीला हो जाए, तो उसे जरा शिक्षा देनी चाहिए। बाकी, हम जो देते हैं, वह ज्ञान ही ऐसा है कि और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं रहती। 'व्यवस्थित' का ज्ञान ही ऐसा है कि मन शोर नहीं मचाता। मन जहाँ जाए वहाँ समाधान, समाधान और समाधान ही रहे। सर्व अवस्थाओं में संपूर्ण समाधान रहे, वही ज्ञान! वही धर्म!
मन का स्वभाव तो बड़ा ही विचित्र है। वह तो ऐसा है कि किसी से झूठ बोलकर पाँच रुपये हड़प ले और फिर बाहर निकलने पर किसी को दो रुपये दान भी कर दे। जिसके ऊपर निरंतर फूल बरसाते हों, उसके प्रति कभी भी अभाव पैदा कर दे, ऐसा मन है। इसलिए सावधान रहना। मन के चलाए मत चलना। कबीरजी क्या कहते हैं, 'मन का चलता तन चले ताका सर्वस्व जाए' हमें ठग जाए और पता भी नहीं चलने दे, ऐसा