Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 29
________________ आप्तवाणी-१ आप्तवाणी-१ ही होना चाहिए। यह क्रोध करना, गालियाँ देना, क्लेश करना वह सब रौद्रध्यान ही है। भगवान ने (केवली भगवंतो ने) रौद्रध्यान बहुत ही कम से कम करने को कहा है। जब कि आज तो यही मुख्य व्यापार है। आचार्य, गुरुजन, अपने से कम अक्लवाले शिष्यों पर चिढ़ते रहते हैं, वह भी रौद्रध्यान है। मन में चिढ़ना भी रौद्रध्यान है। तब आज तो बात-बात में मुँह से अपशब्द निकालते हैं! रौद्रध्यान का फल क्या? नर्कगति! आर्तध्यान : आर्तध्यान अर्थात् खुद के ही आत्मा को पीड़ादायक ध्यान। बाहर के किसी जीव को असर नहीं करे, मगर खुद अपने लिए अग्रशोच किया करे, चिंता करे, वह आर्तध्यान। रौद्रध्यान की तुलना में फिर भी कुछ अच्छा कहलाता है। सामनेवाले को तनिक भी असर नहीं करे। आर्तध्यान में क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं होते। पर इस काल में आर्तध्यान नहीं होता। इस काल में मुख्य रूप से रौद्रध्यान ही होता है। सत्युग में पाँच प्रतिशत होता है। दस साल की बेटी के ब्याह की चिंता करे, वह आर्तध्यान। अप्रिय महेमान आएँ, और भीतर भाव बिगड़ें कि ये जाएँ तो अच्छा, वह आर्तध्यान। और यदि 'प्रिय व्यक्ति' अर्थात् अर्थ संबंध या विषय संबंध हो, ऐसा कोई आए और 'वह नहीं जाए' ऐसी इच्छा करे, वह भी आर्तध्यान। शिष्य अच्छा नहीं मिला हो, और गुरु उस पर अंदर ही अंदर अकुलाया करे, वह भी आर्तध्यान। आर्तध्यान का फल क्या? तिर्यंचगति। धर्मध्यान : सारा दिन चिंता नहीं हो और अंतरक्लेश शमित रहे, वह धर्मध्यान। धर्मध्यान अर्थात् रौद्रध्यान या आर्तध्यान में वे कभी भी न रहे और निरंतर शुभ में ही रहे। वे निडर, धीरजवान, चिंतारहित होते हैं और कभी भी अभिप्राय नहीं बदलते। स्वरूप का भान भले ही न हो, उस पर भगवान को आपत्ति नहीं है, पर सदा क्लेश रहित रहो, अंदर (भीतर) और बाहर (व्यवहार)। इस काल में धर्मध्यान बहुत ही कम लोगों को होता है। सौ में से दो-पाँच मिलेंगे ऐसे। क्योंकि आज के इस विकराल कलियुग में चिंता-झंझट अकेले संसारी वर्ग को ही नहीं, पर साधु-साध्वी, आचार्यों, बाबाओं आदि सभी को रहा ही करती है। अरे! कुछ न हो, तो शिष्यों पर भी अकुलाते रहते हैं। धर्मध्यान का फल क्या? सिर्फ धर्मध्यान रहा. तो उसका फल देवगति, और धर्मध्यान के साथ आर्तध्यान हो, तब उसका फल मनुष्यगति। शक्लध्यान : शुक्लध्यान के चार चरण। आत्मा का अस्पष्ट वेदन रहे, वह पहला चरण। दूसरे चरण में आत्मा का स्पष्ट वेदन रहता है। 'हमारा' पद वह दूसरे चरण का शुक्लध्यान है। केवली भगवान का पद, तीसरे चरण का शुक्लध्यान है और चौथे चरण में मोक्ष । स्पष्ट वेदन यानी परमात्मा संपूर्ण जान लिया, पर सारे ज्ञेय नहीं झलकते। संपूर्ण केवलज्ञान में सारे ज्ञेय झलकते हैं। अस्पष्ट वेदन यानी, इस कमरे में, अंधेरे में बर्फ पड़ी हो और उसे छूकर पवन आती हो, तो पवन ठंडी लगती है। इससे पता चलता है कि यहाँ बर्फ है और आत्मा का स्पष्ट वेदन का मतलब तो, बर्फ को कर ही बैठे हों, ऐसा अनुभव होता है। हमने आपके, हमारे और केवली भगवान के बीच में ज्यादा अंतर नहीं रखा है। कालवश हमारा केवलज्ञान रुका है, इसलिए चार डिग्री शेष रह गया। ३५६ डिग्री पर अटका हुआ है, पर हम आपको देते हैं 'संपूर्ण केवलज्ञान'। शुक्लध्यान का फल क्या? मोक्ष। हम खटपटिया वीतराग हैं, संपूर्ण वीतराग (राग-द्वेष से मुक्त) नहीं हैं। हम एक ही ओर वीतराग नहीं हैं। अन्य सभी ओर से संपूर्ण वीतराग हैं। हम 'खटपटिया', यानी फलाँ से कहेंगे कि आइए आपको मोक्ष दें। मोक्ष देने हेतु सभी तरह की खटपट कर लेते है।

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