Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 31
________________ आप्तवाणी-१ ४० आप्तवाणी-१ बुद्धि तो संसारानुगामी है, कभी भी मोक्ष में जाने नहीं देगी। कृष्ण भगवान ने भी बुद्धि को 'व्यभिचारिणी' बताया है। बुद्धि संसार में ही खूपाकर रखती है, निकलने नहीं देती। 'स्व' का संपूर्ण अहित करती है। जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती है वैसे-वैसे संताप बढ़ता जाता है। दो साल के बच्चे की माँ मर जाए, तो उसे कुछ होगा? और बाईस साल के लड़के की माँ मर जाए, तो उसे कितना दु:ख होता है? ऐसा क्यों? बुद्धि बढ़ी इसलिए। भगवान ने क्या कहा कि संसार में बुद्धि का उपयोग ही नहीं करना होता और यदि खर्च करनी पड़े, तो उसकी लिमिट (सीमा) बाँध दी है। कितनी लिमिट कि यदि बड़े पथ्थर के नीचे तेरा हाथ दब गया हो, तो उसे युक्तिपूर्वक निकाल लेना और फिर से नहीं दबे, उतनी ही बुद्धि उपयोग में लानी है। मगर लोगों ने तो पैसा कमाने हेतु, कालाबाजारी करने के लिए बुद्धि का उपयोग करना शुरू कर दिया। लोगों को ठगने के लिए बुद्धि का प्रयोग करने लगे। इतना ही नहीं, पर लोगों ने ट्रिकें आजमाना सीख लिया। ट्रिक अर्थात् सामनेवाले को पता नहीं चले, उस तरह उससे बनावट करके, उससे हड़प लेना वह। यह तो भयंकर रौद्रध्यान है। सातवें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी। अविरोध वाणी प्रमाण 'स्याद्वाद' किसे कहते हैं? किसी का भी विरोध सहन नहीं कर पाए, वह स्याद्वाद कहलाए ही कैसे? विरोध लगता है, वह तो सामनेवाले का व्यू पोइन्ट (दृष्टिबिंदु) है। किसी के भी व्यू पोइन्ट को गलत नहीं कहे, किसी का भी प्रमाण नहीं दु:खे, वह स्याद्वाद। ज्ञानी पुरुष को सारे व्यू पोइन्ट मान्य होते हैं। क्योंकि खुद सेन्टर(केन्द्र) में बैठे होते हैं। हम स्याद्वाद हैं। सेन्टर में बैठे हैं। भगवान ने कहा है कि सामायिक. प्रतिक्रमण. प्रत्याख्यान-जो आत्मिक क्रियाएँ हैं, उन्हें हमारी आज्ञानुसार सरल रहकर करना। तात्विक दृष्टि से देखा जाए, तो दोष किसी का भी नहीं है। संयोग ऐसे हैं, इसलिए हमें ऐसा कड़क बोलना पड़ता है। वह भी, सामनेवाले के लिए संपूर्ण करुणाभाव होने के कारण, उसका रोग निकालने के लिए ऐसी वाणी बोलते हैं। ज्ञानी और धर्म का स्वरूप इस संसार में कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि उनका व्यवहार धर्म है। जब तक निश्चय धर्म प्राप्त नहीं होता, तब तक ऐसा नहीं कह सकते। शुद्धात्मा को पहचाना नहीं है, तब तक व्यवहार धर्म है, ऐसा कैसे कह सकते हैं? निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कब अलग पड़ते हैं कि जब ज्ञानी पुरुष अपनी अनंत सिद्धियाँ खर्च करके, आत्मा और अनात्मा के बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन (भेदरेखा) डाल देते हैं, और निरंतर अलग ही रखते हैं, तभी समझ में आता है। यह खुद का क्षेत्र और यह पराया क्षेत्र, ऐसा अलग कर देते हैं। होम और फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट अलग कर देते हैं। जब तक निश्चय धर्म प्राप्त नहीं किया, तब तक व्यवहारधर्म के बारे में कैसे बोल सकते हैं। तब फिर वह क्या कहलाता है? वह तो लौकिक धर्म कहलाता है। लौकिक धर्म अर्थात् लोगों की मान्यता का धर्म। लोकोत्तर धर्म नहीं। यह धर्म क्या करता है? बुरी आदतें हटाता है और अच्छी आदतें डालता है। लौकिक धर्म तो क्या कहता है कि अच्छा हो वह अपनाना और अनुचित हो उसे मत अपनाना। वह क्या सिखलाता है कि चोरी नहीं करना, झूठ मत बोलना, जीवन में सुख मिले, अनुकूलता प्राप्त हो ऐसा करना। सारे संसार ने सत्कार्यों को ही सही धर्म माना है। हम उसे लौकिक धर्म कहते हैं। उससे चतुर्गति ही मिलती है। अशुभ में से शुभ में आना, वह लौकिक धर्म-रिलेटिव धर्म है और शुभ में से शुद्ध में आना, वह अलौकिक धर्म है। मोक्ष चाहते हो, तो अलौकिक धर्म में आना ही होगा। अलौकिक धर्म में तो अच्छी आदतें और बुरी आदतें, अनुकूल और प्रतिकूल, अच्छा-बुरा इन सभी से छुटकारा मिलता है और तभी मोक्ष होता है। 'स्वधर्म' ही सच्चा धर्म है, वही आत्मा का धर्म है, वही

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