Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 45
________________ आप्तवाणी-१ आप्तवाणी-१ सातवीं मैं, ऐसी हमारी वंशावली की बगिया हरी-भरी रहेगी। अतः इस माया और उसके छह बेटों ने सारे संसार को लड़ाई-झगड़ों में फँसा रखा है। यदि एटमबम गिराना है, तो उस पर गिराओ न? झगड़े यही करवाते हैं और संसार खड़ा ही रहता है। उसके छह बेटों में क्रोध भोला है। तुरंत ही भडभड़ कर डालता है, उसकी तो कोई भी पहचान करा सकता है। कोई न कोई कह देगा, 'अबे! क्रोध क्यों करता है?' मान, वह भी अच्छा है। पर क्रोध से थोड़ा निम्न कक्षा का, कोई न कोई तो कहेगा, 'अब सीना ताने क्या घूम रहा है?' परंतु कपट और मोह तो किसी को भी दिखाई नहीं देते और मालिक को खुद भी खबर नहीं होती। अंतिम नंबर आता है लोभ का। कपट, मोह और लोभ से तो भगवान भी तंग आ जाते हैं। जल्दी मोक्ष में जाने नहीं देते। वह तो बहुत भारी वंशावली है, इस माया की तो! अंत तक यह माया जीती जा सके, ऐसा नहीं है। क्रमिक मार्ग में भगवान पद सामने से पुष्पमाला लेकर आए, तब यह माया! उसे मिलने नहीं देती। वह तो ज्ञानी पुरुष मिलें तभी हल निकलता है और माया की वंशावली निर्मूल होती है। हम और कुछ नहीं करते। मान, अहंकार नाम का उसका जो सबसे बड़ा बेटा है, उसे ही जड़मूल से उखाड़ फेंकते हैं। निकाल देते हैं। फिर पाँचों बेटे और माया बुढ़िया सभी मर जाते हैं ताकि छुटकारा हो और मुक्ति मिले। हम ज्ञान देते हैं, तब आपको सभी माया से मुक्ति दिला देते हैं। सुख के प्रकार संसार में तीन प्रकार के सुख हैं: (१) इन्द्रिय सुख (२) निरिन्द्रिय सुख (३) अतीन्द्रिय सुख। पंचेन्द्रियों से ही विषय भोगते हैं, वह इन्द्रिय सुख। इन्द्रिय सुख की डाली छोड़ दी और अतिन्द्रिय सुख हाथ नहीं लगा! इसलिए बीच में लटके। निरिन्द्रिय सुख में। और अतिन्द्रिय सुख केवल वही अपना स्वयं का, आत्मा का अनंत सुख है। वह तो बिना आत्मा जाने उत्पन्न होता ही नहीं। सर्दी की रात की कड़ाके की ठंड थी और एक गाँव के मुसाफिरखाने में एक इन्द्रिय सुखवाला, दूसरा निरिन्द्रिय सुखवाला और तीसरा अतिन्द्रिय सुखवाला, ऐसे तीन जन जा पहुँचे। रात में हिमपात हुआ और तीनों के पास ओढ़ने-बिछाने को कुछ भी नहीं था। अब तीनों की सारी रात कैसे गुजरी, पता है? इन्द्रिय सुखवाला हर पाँच मिनट पर चिल्ला उठता, 'ओ बाप रे! मर गया रे, इस ठंड ने तो मुझे मार डाला रे!' फलतः सुबह वह सच में मर गया था। निरिन्द्रिय सुखवाला थोड़ी-थोड़ी देर पर बोलता, 'अबे साली ठंड बहुत है! पर धत, मुझे कहाँ लगती है? यह तो देह को लगती है। ऐसे अहंकार करके सारी रात गुजारी और सुबह देखें, तो सारा शरीर ठंडा पड़ गया होता है, पर उसकी साँस धीमी-धीमी चल रही होती है। और अतिन्द्रिय सुखवाला? वह तो बाहर हिमपात होते ही अपनी ज्ञानगुफा में चला जाता है। देह से पूर्ण रूप से सारी रात अलग ही रहता है! अपने अनंत सुख के धाम में ही रहता है ! और सुबह उठकर चल पड़ता है। निरिन्द्रिय सुखवाला अहंकार की मस्ती में ही रहा करता है। लोग बापजी, बापजी करते हैं और वह उसी मस्ती में रहता है। मल-विक्षेप-अज्ञान: राग-द्वेष-अज्ञान वेदांत में कहा है कि मल, विक्षेप और अज्ञान जाएँ, तो मोक्ष होता है। जब कि जैन दर्शन में कहा है कि राग-द्वेष और अज्ञान जाएँ, तब मोक्ष होता है। देह के मल तो जुलाब से निकल जाते हैं, पर मन के मल नहीं निकलते। और चित्त का तो किसी से भी नहीं जानेवाला। जब तक अज्ञान है तब तक सारे विक्षेप रहेंगे। थोड़ी शांति रहे, इसलिए ये लोग मल, विक्षेप निकाल करते हैं। ज्ञान मिलने के बाद रहा क्या? मल और विक्षेप तो सत्संग में आएँ तो चले जाएँगे।

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