Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 42
________________ आप्तवाणी-१ ६२ आप्तवाणी-१ उन गुणों से कुछ अलग नहीं है। वस्तु में वस्तु के गुणधर्म रहे हैं, इसलिए उसके गुणधर्मों को पहचानें, तो वस्तु की पहचान होगी। जैसे कि सभी धातुओं में से सोने को पहचानना हो, तो उसके गुणधर्म जान लिए हों, तो उसे पहचान सकते हैं। सोना अपने गुणधर्मों से अलग नहीं है। फूल और सुगंध दोनों कभी भिन्न नहीं होते। वह तो सुगंध पर से फूल की पहचान होती है। वैसे ही, आत्मा को आत्मा के गणधर्म से ही पहचाना जाता है। वही धर्म जानना है। आत्मधर्म जानना है। प्रकृति के धर्मों को तो अनंत जन्मों से जानते आए हैं, पर फिर भी हल नहीं निकला, पार नहीं पाया। ये रिलेटीव धर्म, जो लौकिक धर्म हैं, वे सारे ही प्रकृति के धर्म हैं, देह के धर्म हैं। अलौकिक धर्म ही आत्मधर्म है, रियलधर्म है। इस देह को नहलाएँ, धुलाएँ, खिलाएँ, उपवास करवाएँ वे सभी प्राकृतधर्म हैं। प्राकृत धर्म का पता-ठिकाना नहीं होता। क्योंकि वह खुद की सत्ता से बाहर का धर्म है। यह तो बिना जलाब की दवाई लिए जुलाब हो जाता है और जुलाब रोकने की दवाई लिए बगैर बंद हो जाता है, ऐसा प्रकृति का काम है! उसके प्रति राग-द्वेष नहीं हुए वह शुद्धात्मा। मारामारी करने पर भी रागद्वेष नहीं हों, ऐसा हमारा गज़ब का ज्ञान है! प्रकृति धर्म- पुरुष धर्म जितने विकल्प हुए, वे सभी प्रकृति में आते हैं। विकल्प नहीं हुए हों, वे प्रकृति में नहीं आते। यह वणिक है, यह पटेल है, यह मुसलमान है, वे उनकी प्रकृति से पहचाने जाते हैं। बनिए की प्रकृति विचारशील और समझदारीवाली होती है। पटेल, क्षत्रिय कहलाते हैं। उनकी प्रकृति ऐसी कि विपक्षी का सिर काट कर ले आएँ और समय आने पर अपना सिर काट कर दें ऐसी होती है। मुसलमान की प्रकृति और होती है। असल में प्रकृति तो प्रत्येक मनुष्य की अलग-अलग होती है। उसका कोई अंत नहीं है। मन-वचन-काया, ये प्रकृति के तीन हिस्से हैं। तीनों वस्तुएँ इफेक्टिव हैं। उस इफेक्ट में भ्रांति से फिर कोज़ेज़ खड़े होते हैं और उसमें से कारण प्रकृति गठित होती है और उसका इफेक्ट, कार्य प्रकृति है। जब तक संदेह नहीं जाता, तब तक प्राकृतधर्म है। संदेह जाए, आत्मा के लिए संपूर्ण नि:शंक हो, तब पुरुष होता है और उसके बाद ही कारण प्रकृति का गठन होना बंद होता है। प्राकृत बगीचा जो-जो इफेक्ट हैं, कार्य प्रकृति हैं। वह कभी भी परिवर्तित नहीं होती। हरएक बाप चाहता है कि मेरा बेटा मेरे जैसा हो। अरे! घर को बगीचा बनाना है या खेत? हरेक की प्रकृति अलग-अलग, हरेक पर फूल अलग-अलग आते हैं। दूसरें पौधों पर खुद के जैसे फूल आएँ ऐसा कैसे हो सकता है? यदि केवल गुलाब के ही पौधे हों, तो वह क्या वह बगीचा कहलाएगा? नहीं, गुलाब का खेत कहलाएगा। जैसे बाजरे का खेत, वैसे गुलाब का खेत। यह तो साथ में मोगरा हो, चंपा हो, जही हो और काँटे भी हों, तब बगीचा कहलाता है। प्रकृति तो बगीचा है। प्राकृत पूजा-पुरुष पूजा संसार में जितनी भी भक्ति चल रही है, वह प्राकृत गुणों की भक्ति चल रही है। प्राकृत गुण यानी जिनका अस्तित्त्व शाश्वत नहीं है, ऐसे काल्पनिक गुण। प्राकृत गुण वात, पित्त, और कफ के अधीन हैं। खद के (आत्मा) गुण स्वावलंबी हैं। प्रकृति के गुण परावलंबी हैं। वह तो जब सन्निपात हो, तब पता चले। संसार में सर्वत्र प्रकृति की ही पूजा चल रही है। पुरुष की पूजा कहीं देखने में नहीं आती। प्रकृति की पूजा का फल संसार है, और पुरुष की पूजा का फल मोक्ष है। हम स्वयं पुरुष के तौर पर, शद्धात्मा के तौर पर स्ववश हैं. और प्रकृति के तौर पर परवश हैं। प्रकृति और रेग्युलेटर ऑफ द वर्ल्ड के हिसाब से यह सब चल रहा है। उसमें भगवान हाथ नहीं डालते। पुरुष होने के बाद प्रकृति के साथ कुछ लेना-देना नहीं रहता। हुआ सो प्रकृति।

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