________________
आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
कुछ भी करना नहीं है। कुछ भी देना नहीं है, क्योंकि हम किसी चीज के भिखारी नहीं हैं। जिनका भिखारीपन संपूर्ण रूप से खत्म हो गया हो, उन्हीं में भगवान प्रकट होते हैं। लक्ष्मीजी के भिखारी नहीं हों, ऐसे कुछ साधु मिलेंगे, विषयों के भिखारी नहीं हो, ऐसे भी मिलेंगे, तब वे मान के भिखारी होंगे या कीर्ति के भिखारी होंगे, नहीं तो शिष्यों के भिखारी होंगे। किसी न किसी कोने में भिखारीपन पड़ा ही होता है। जहाँ संपूर्ण अयाचकता प्राप्त होती है, वहीं परमात्म स्वरूप प्रकट होता है। हम लक्ष्मी के, विषयों के, शिष्य के, या कीर्ति के, उनमें से किसी चीज़ के भिखारी नहीं हैं। हम किसी चीज़ के भिखारी नहीं हैं। हमें कुछ नहीं चाहिए। हाँ, तुझे हमारे पास से जो चाहिए, वह ले जा। पर जरा सीधा माँगना, ताकि फिर से माँगना नहीं पड़े।
संसार के भौतिक सुख तो बाइ-प्रोडक्ट हैं और आत्मा प्राप्त करना, वह मेन प्रोडक्शन है। मेन प्रोडक्शन का कारखाना छोड़ लोगों ने बाय प्रोडक्शन के लिए कारखाने लगाए हैं। इससे दिन कैसे फिरेंगे। मोक्षमार्ग नहीं जानने के कारण सारा संसार भटकता रहता है और जहाँ जाए, वहाँ खो जाता है। यदि मोक्ष चाहिए तो आखिरकार ज्ञानी के पास ही जाना होगा। अरे! दादर स्टेशन पर पहुँचना हो, तो भी तुझे उस रास्ते के ज्ञानी से पूछना पड़ेगा। तब यह मोक्ष की गली तो पतली, अटपटी और भूलभुलैयावाली है। खुद पार करने गया, तो कहीं का कहीं भटक जाएगा। इसलिए ज्ञानी को खोज निकाल और उनके पदचिन्हों पर, पीछे पीछे चला जा। हम मोक्षदाता हैं। मोक्ष देने के लाइसन्स सहित हैं। अंत तक का दे सकें, ऐसे हैं। यह तो अक्रम ज्ञानावतार है ! एक घंटे में हम तुझे भगवान पद दे सकते हैं! पर तेरी पूर्ण तैयारी चाहिए।
हमारे पास दो ही वस्तुएँ लेकर आना। एक 'मैं कुछ जानता नहीं' और 'परम विनय'। मैं कुछ जानता हूँ', यह तो कैफ़ है और यदि यथार्थ जान लिया हो, तब वह तो प्रकाश कहलाता है और प्रकाश होगा वहाँ ठोकर नहीं लगती। जब कि अभी तो जगह-जगह पर ठोकरें लगती हैं। उसे जान लिया' कैसे कहें? एक भी चिंता कम हुई? सही जाना होता,
तो एक भी चिंता नहीं होनी चाहिए। यदि 'मैं कुछ जानता हूँ', ऐसा तेरा मानना है, तो फिर मैं तेरे अधूरे घड़े में क्या डालूँ? तेरा घड़ा खाली हो, तो मैं उसमें अमृत भर दूं। फिर तू जहाँ जाना चाहे, वहाँ जाना। बालबच्चे ब्याहना, संसार चलाना, पर मेरी आज्ञा में रहना।
यह बात अपूर्व है। पहले सुनी नहीं हो, पढ़ी नहीं हो ऐसी। सारे संसार का कल्याण करने के हम निमित्त हैं, कर्ता नहीं।
संसार महापोल यह सारा संसार पोलपोल है। यह हम अपने ज्ञान में देखकर बताते हैं। तू यदि संसार को सच्चा मानकर चलता है, तो यह तेरी ही भूल है। पोलंपोल अर्थात् अवकाश-आकाश।
एक वैद्य था। उसने अपने मरीज को बहुत अच्छी दवाई दी। उसने मात्र मिर्ची से परहेज करने को कहा था, क्योंकि वह रोग ही अधिक मिर्च खाने से उत्पन्न होता था। बेचारे वैद्य ने बडी मेहतन की, अच्छी से अच्छी दवाई दी। दवाईयाँ बदलता रहा, पर महीना दो महीना होने पर भी रोग में कोई फर्क नहीं पड़ा। एक दिन अचानक वैद्य रोगी के घर जा पहुँचा। वहाँ उसने क्या देखा? मरीज़ भोजन ले रहा था और थाली में दो बड़ी हरी मिर्च रखी हुई थीं। इस पर वैद्य रोष से भर गया और एकदम से इमोशनल (भावुक) हो जाने से वहीं का वहीं उसका हार्ट फेल हो गया! इसमें दोष किस का? अरे, मरीज़ ने तो जहर पीया मगर तूने क्यों जहर पी लिया? यह तो महापोल है। किसी स्टेशन पर डेरा डालने जैसा नहीं है। वर्ना फंस गए समझो। यह तो, मरीज मिर्च खाए और दिमाग का पारा चढ़ने से नस फट जाए वैद्य की! यह तो देखा उसीका जहर है न? यदि चाय में कुछ कचरा गिरा देखे, तो जहर चढ़ता है, पर जिसे पता नहीं है, वह तो आराम से पी जाता हैं। यह तो देखे तभी लगता है कि गलत हुआ, उसीका नाम पोलंपोल। सच्ची बात जानें तब भड़कते हैं और नहीं जाना, तो कुछ भी नहीं।
एक व्यक्ति मेरे पास आया करता था। उसकी एक लड़की थी।