Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 32
________________ आप्तवाणी-१ ४१ आप्तवाणी-१ अलौकिक धर्म है। शेष सभी देहधर्म हैं, जो परधर्म, रिलेटिव धर्मलौकिक धर्म कहलाते हैं। रियल धर्म में-अलौकिक धर्म में कहीं संप्रदाय नहीं होते, पंथ नहीं होते, ध्वजा नहीं होती, ग्रहण-त्याग नहीं होता, मतभेद नहीं होते, अलौकिक धर्म निष्पक्षपाती होता है। पक्षपात से कभी मोक्ष नहीं होता। लोगों को मोक्ष में जाना है और दूसरी ओर मतमतांतर में पड़े रहना है, पक्ष लेना है। मेरा सही है, ऐसा कहकर विपक्षी को गलत ठहरा देते हैं। किसी को भी गलत कहकर तू कभी भी मोक्ष में नहीं जा पाएगा। मतमतांतर छोड़कर, पक्षपोषण छोड़कर संप्रदायों की बाडाबंदी तोड़कर, जब तू सेन्टर (केन्द्र) में आएगा, तभी अभेद चेतन के धाम को प्राप्त करेगा। ऐसा करने के बजाय तूने तो यहाँ पक्ष में पड़कर पक्ष की नींव मजबूत कर दी और उसमें तेरा अनंत जन्मों का संसार बंधन गठित कर दिया। तुझे मोक्ष में जाना है या पक्ष में ही पड़े रहना है? एक ही धर्म में कितने संप्रदाय खड़े हो गए हैं? झगड़े पैदा हो गए! जहाँ कषाय वहाँ मोक्ष नहीं और कषाय को धर्म नहीं कहते। मगर यह तो पक्ष को मजबूत करने हेतु कषाय किए। धर्म को ही रेसकोर्स बना दिया? शिष्यों की स्पर्धा में पड़े! उसके पाँच शिष्य हैं, तो मेरे ग्यारह तो होने ही चाहिए। घर पर बीवी और बच्चे मिलाकर तीन घंट थे, उन्हें छोड़ा और यहाँ ग्यारह घंट लटकाए? फिर सारा दिन शिष्यों के ऊपर चिढ़ता रहता है, अब इसे मोक्ष का साधन कैसे कहें? ऐसी कड़क वाणी, हमारी वीतरागों की नहीं होती, पर क्या करें? उनके रोग को निकालने के लिए भीतर गहरी वीतरागता के साथ, संपूर्ण करुणाभरी वाणी निकल जाती है! उसमें उनका भी दोष नहीं है, उनकी इच्छा तो मोक्ष में जाने की है पर नासमझी के कारण उलटा हो जाता है। काल ही बड़ा विचित्र आया है। उसकी आँधी की लपेट में सभी आ गए हैं। हमें तो अपार करुणा होती है। हमें सभी निर्दोष ही दिखाई देते है, क्योंकि हम खुद निर्दोष दृष्टि करके सारे के सारे संसार को निर्दोष देखते हैं। निर्दोष दृष्टि भगवान महावीर की सभा में एक आचार्य महाराज बैठे थे। उनके मन में ऐसा कैफ़ हो गया कि मैं बहुत ज्ञान जानता हूँ और मैं कुछ जानता हूँ। इसलिए उन्होंने भगवान से पूछा, 'भगवन् आपमें और मुझमें अब क्या अंतर है? मेरे अभी कितने जन्म शेष रहे?' आचार्य महाराज के मन में ऐसा था कि तीन जन्मों में मोक्ष हो जाएगा। भगवान तो ठहरे वीतराग पर अंदर से आचार्य महाराज की बात समझ गए। बोले कि प्रश्न तो अच्छा है, पर दो-पाँच का पुण्योदय हुआ है उन्हें भी बुला लें। गाँव के नगरसेठ, सती, वेश्या, जेबकतरे को बुलाइए और वहाँ एक गधा बाहर खड़ा है उसके बारे में भी आपको बताता हैं। 'हे आचार्य महाराज! मेरे में, आपमें, इस नगरसेठ में, सती में, वेश्या में, जेबकतरे में और उस गधे में जरा-सा भी अंतर नहीं है।' महाराज बोल उठे, 'क्या कहा भगवन् ! आपमें और मुझमें कोई अंतर नहीं? अंतर तो बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है न?' तब भगवान बोले, 'देखिए वह अंतर आपको अपनी दृष्टि से दिखता है। हम आज से तीन जन्म पूर्व ज्ञानी पुरुष के शिष्य हुए थे। उन्होंने हमारी दृष्टि निर्दोष कर दी थी। उस दृष्टि का हमने दो जन्मों में उपयोग किया और इस जन्म में संपूर्ण निर्दोष हुए। दृष्टि संपूर्ण निर्दोष की और सभी को संपूर्ण निर्दोष देखा। उस निर्दोष दृष्टि से हम कहते हैं कि आपमें, हम में और इन सभी में कोई भी अंतर नहीं है।' आचार्य महाराजने कहा, 'पर प्रभु! हमें तो बड़ा अंतर लगता है। आप सती को और वेश्या को, नगरसेठ को और जेबकतरे को, मुझे और उस गधे को सभी को एक समान कैसे कहते हैं? हमारी समझ में नहीं आता। यह बात मानने में नहीं आती।' भगवान ने कहा, 'देखिए, आचार्य महाराज ! आपमें, हममें, नगरसेठ में, सती में, वेश्या में, जेबकतरे में और उस गधे में माल एक ही सरीखा है। सभी में एक सौ बीस काउन्ट का एक तोला भर सूत और वह भी एक ही मिल का है। सभी में सरीखा ही है। अंतर केवल इतना ही है कि आप सभी का उलझा हुआ है और मेरी गुत्थियाँ

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