Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ आप्तवाणी-१ १३ आप्तवाणी-१ हकीकत में इस संसार में दुःख जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। दुःख अवस्तु है। कल्पना से पैदा किया है। जलेबी में दुःख है, ऐसी कल्पना करें, तो उसे उसमें दुःख लगता है और सुख है ऐसी कल्पना करें, तो सुख लगता है। इसलिए वह यथार्थ नहीं है। जो सच्चा सुख है, वह सभी को स्वीकार्य होना ही चाहिए। यूनिवर्सल ट्रथ (सत्य) होना चाहिए। पर तू जिसमें सुख मानता है उसमें औरों को अपार दुःख का अनुभव हो ऐसा यह संसार प्रारब्ध-पुरुषार्थ का विरोधाभासी अवलंबन (सारे अल्पकालिक समायोजन हैं)। अरे! यह देह भी आपकी सगी नहीं है न? वह भी दगा दे देती है। यदि तय किया हो कि आज इतने समय सामायिक करनी है, तो या तो सिर दु:खने लगता है या पेट दुःखने लगता है। वह सामायिक भी नहीं करने देती। खुद परमानेन्ट (शाश्वत) और यह सब टेम्परेरी (अस्थायी), दोनों का मेल कैसे हो? इसलिए ही सारा संसार उलझन में फँसा है। रिलेशन में तो रिलेशन के आधार पर ही व्यवहार करना चाहिए। सत्य-असत्य के लिए बहुत आग्रह नहीं रखना चाहिए। ज्यादा खींचने पर टूट जाता है। सामनेवाला यदि संबंध तोड डाले और हमें संबंध की ज़रूरत हो, तो हम सिल दें, तभी संबंध बना रहेगा। क्योकि सारे संबंध रिलेटिव हैं। उदाहरण के लिए, यदि बीवी कहे कि आज पूनम है, आप कहें कि नहीं अमावस्या है। फिर दोनों में खींचातानी होगी और सारी रात बिगड़ेगी और सुबह में वह चाय का कप पटक कर देगी, ताँता बना रहता है। उसके बजाय हम समझ लें कि इसने खींचना शुरू किया है, तो टूट जाएगा, अतः धीरे से पंचाग (केलेन्डर) के पन्ने इधर-उधर पलट कर कहो, 'हाँ तेरी बात सही है, आज पूनम है।' ऐसे थोड़ा नाटक करने के बाद ही उसकी बात सही ठहराना, वर्ना क्या होगा? डोर बहुत खींची हई हो और एकदम से आप छोड दो, तो वह गिर पड़ेगी। इसलिए डोर धीरे-धीरे सामनेवाला गिर नहीं पड़े, ऐसे संभलकर छोड़ना, वर्ना वह गिर जाए, तो उसका दोष लगता है। सुख और दुःख संसार में सभी सुख की खोज में हैं पर सुख की परिभाषा ही तय नहीं करते। 'सुख ऐसा होना चाहिए कि उसके बाद कभी भी दु:ख नहीं आए।' ऐसा एक भी सुख संसार में हो, तो खोज निकाल. जा। शाश्वत सुख खुद के 'स्व' में अंदर ही है। खद अनंत सख धाम है और लोग नाशवंत चीजों में सुख खोजने निकले हैं। इन संसारियों के सुख कैसे हैं? जाड़े का दिन और छत का मेहमान, कड़ाके की सर्दी की शुरुआत, छोटी रजाई और खुद लंबू। यदि सिर ढंके, तो पैर खुले रहें और पैर ढंके, तो सिर खुला रहे। भैया सारी रात परशान रहे ऐसा यह संसारी सुख है। लोग प्रारब्ध को पुरुषार्थ कहते हैं। पीसे हुए को फिर से पीसते हैं और उलटे आधा सेर आटा उड़ा देते हैं। कुछ लोग प्रारब्ध-प्रारब्ध की रट लगाते हैं और कुछ पुरुषार्थ-पुरुषार्थ करते रहते हैं, पर वे दोनों निराधार अवलंबन हैं। ये मज़दूर सारा दिन मिलों में पुरुषार्थ करते हैं, तो वे क्या पाते हैं? रोटी और दाल या और कुछ ज्यादा? प्रारब्धवादी यदि हाथ जोड़कर बैठे रहें, तो? मुआ! लाख कमाए तो कहता है, 'मैंने कमाया' और घाटा हो जाए तो कहता है, 'भगवान ने किया, मेरे ग्रह खराब थे, साझीदार बदमाश मिला।' ऊपर से कहता है, 'मैं क्या करू?' अरे! तू जीवित है या मरा हुआ है? अच्छा हुआ तब कहता है, 'मैंने किया', तो अब क्यों नहीं कहता कि मैंने किया है? अब कहता है, भगवान ने किया। ऐसा कहकर भगवान को बदनाम क्यों करता है? और ग्रह भी कुछ करते-धरते नहीं हैं। तेरे 'ग्रह' ही तुझे परेशान करते हैं। तेरे भीतर ही नौ के नौ ग्रह भरे पड़े हैं। वे ही तुझे परेशान करते हैं। हठाग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह, मताग्रह, सत्याग्रह सभी तुझ में हैं, तेरे हैं। हम निराग्रही हए हैं। जहाँ आग्रह होता है, वहीं विग्रह होता है। हमें आग्रह नहीं है, तो विग्रह कहाँ से होगा? यह तो अनुकूल में आता है तब सफल होता है और प्रतिकूल आने पर भगवान पर उँडेल देते हैं। अनुकूल और प्रतिकूल की इन दो कड़ियों को लोग पुरुषार्थ कहते हैं। यदि खुद पुरुषार्थ करता होता, तो कभी भी घाटा

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141