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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
दुःख दे दें, तो हमारे पास क्या बचेगा? पर उसे खुद मालूम नहीं कि वह खुद ही अनंत सुख का कंद है। अत: द:ख अर्पण कर देगा, तो निरा अपार सुख ही बचेगा, पर किसी को दु:ख अर्पण करना भी नहीं आता।
ही नहीं है। निराकुलता तो 'स्वरूप' का भान होने के बाद ही उत्पन्न होती है। क्रमिकमार्ग में निराकुलता की प्राप्ति अर्थात् सारा संसार रूपी समुद्र पार करके सामनेवाले किनारे पर पहुंचे, तब निराकुलता का किनारा आता है, कितनी मेहनत करनी पड़ती है? इस अक्रममार्ग में तो, यहाँ हमने आपके सिर पर हाथ रख दिया कि सदा के लिए निराकुलता उत्पन्न हो जाती है।
सांसारिक विघ्न निवारक 'त्रिमंत्र' मंत्र के सही अर्थ क्या है? मन को शांत रखे, वह । भगवान की भक्ति करते हुए संसार में विघ्न न आएँ, इसलिए भगवान ने तीन मंत्र दिए थे। १. नवकार मंत्र २. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ३. ॐ नमः शिवाय। उसमें भी अहंकारी लोगों ने नये-नये संप्रदाय रूपी बाड़ बनाकर, मंत्रों को भी बाँट लिया। भगवान ने कहा था कि तुम अपनी सहूलियत के लिए चाहो, तो मंदिर-जिनालय बाँट लेना, पर मंत्रों को तो साथ ही रखना। पर उन्हें भी इन लोगों ने बाँट लिया। अरे! ये लोग तो यहाँ तक पहुँचे कि एकादशी भी बाँट ली। शिव की अलग और वैष्णवों की अलग। इसमें भगवान कैसे राजी रहें? जहाँ मतभेद और कलह होता हो, वहाँ भगवान नहीं होते। हमारे द्वारा दिए गए इस त्रिमंत्र में तो गज़ब की शक्ति है। माँगे तो मेह बरसे, ऐसा है। सभी देवी-देवता राजी रहते हैं और विघ्न नहीं आते। सूली का घाव सूई जैसा लगता है। संपूर्ण रूप से निष्पक्षपाती
__'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति' ऐसा कहीं लिखा है। इसमें मारे डर के मृग शब्द का प्रयोग किया गया है, अब ३२ अंक पर गधा होता है और ३३ अंक मनुष्य होता है। तो एक अंक तो देह में खर्च हो गया, फिर रहा क्या शेष? गुण तो गधे के ही न? दिखता मनुष्य है, पर भीतरी गुण पाशवी होते हैं, मतलब वह पशु ही है। हम साफ कह देते हैं. क्योंकि हमें न तो कुछ चाहिए, न कोई लालच है। हमें तो केवल आपका हित ही देखना है। आपके ऊपर हमारी अपार करुणा होती है, इसलिए हम नग्न सत्य बता देते हैं। इस दुनिया में हम अकेले ही नग्न सत्य बताते
चिंता और अहंकार श्रीकृष्ण कहते हैं:
जीव तू शीदने शोचना करे, (जीव तू काहे शोच करे,) कृष्णने करवू होय ते करे। (कृष्ण को करना हो सो करे।)
तब ये लोग क्या कहते हैं? कृष्ण को तो जो कहना हो सो कहा करें, पर हमें यह संसार चलाना है, इसलिए बिना चिंता किए थोड़े ही काम होगा? लोगों ने चिंता के कारखाने निकाले हैं। पर माल भी बिकता नहीं है, कैसे बिकेगा? जहाँ बेचने जाएँ वहाँ भी चिंता का ही कारखाना होता है न? इस संसार में ऐसा एक भी मनुष्य खोज लाइए कि जिसे चिंता नहीं होती हो।
यह हमारा दिया हुआ त्रिमंत्र, सुबह में हमारा चेहरा (दादाजी का) याद करके पाँच बार बोलोगे, तो कभी डबोगे नहीं और धीरे-धीरे मोक्ष भी मिलेगा। इसकी हम जिम्मेदारी लेते हैं।
हम तो कहते हैं कि सारे संसार के दु:ख हमें हों। आपकी यदि शक्ति है, तो जरा-सा भी अंतरपट रखे बगैर, आपके सारे दु:ख हमारे चरणों में अर्पण कर जाइए। फिर यदि दु:ख आए, तो हमसे कहना। पर इस काल में मुझे ऐसे भी लोग मिले हैं, जो कहते हैं कि आपको यदि
एक ओर कहते है 'श्री कृष्ण शरणं ममः' और दूसरी ओर कहते हैं, 'हे कृष्ण ! मैं तेरी शरण में हूँ।' यदि कृष्ण की शरण ली है, तो फिर चिंता क्यों? महावीर भगवान ने भी चिंता करने को मना किया है। उन्होंने तो एक चिंता का फल तिर्यंचगति बताया है। चिंता तो सबसे बड़ा अहंकार