Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 18
________________ अपभ्रंश भारती 13-14 प्रायश्चितों का विधान स्मृतियों में होने लगा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी देवता की पूजा कर सकता था। सभी देवता ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों के प्रतिनिधि थे। कन्नौज के प्रतिहार राजाओं में यदि एक वैष्णव था, तो दूसरा परम शैव, तीसरा भगवती का उपासक, चौथा परम आदित्य-भक्त । जैनाचार्यों ने माता-पिता के विभिन्न धर्मावलम्बी होने पर भी उनके आदर-सत्कार का स्पष्ट उपदेश दिया है। तेरहवीं शती से पूर्व देव-देवताओं की मूर्तियाँ प्रायः भिन्न-भिन्न भावों के मूर्त प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित थीं। साधारण जनता में यह मूर्तिपूजा जड़-पूजा में परिणत हो गई। मुसलमानों की धर्मान्धता ज्यों-ज्यों मूर्तियों को तोड़ने में अग्रसर हुई त्यों-त्यों मूर्तियों की रक्षा की भावना भी जड़ पकड़ती गई। पूजा में आडम्बर आ गया। कर्मकाण्ड का जंजाल खड़ा हो गया। इस प्रवृत्ति के विरुद्ध देश में एक लहर चली जिसके प्रवर्तक मुख्यतः सन्त थे। इन्होंने धर्म के इस क्रिया-कलाप और बाह्यरूप की अपेक्षा भक्तिभावपरक आन्तरिक रूप पर बल दिया। इस्लाम के सूफी सम्प्रदाय ने भी यही किया। इन सन्तों ने भक्ति के लिए जातिभेद की संकीर्णता से ऊपर उठकर धर्म के मार्ग को प्रशस्त किया। आठवीं शती की शुरूआत में ही अरबी भारत में प्रविष्ट हो गए। दसवीं शती तक वे सिन्ध और मुल्तान से आगे न बढ़ पाये किन्तु ग्यारहवीं शती के आरम्भ में ही लाहौर में भी मुस्लिम राज्य स्थापित हो गया। सूफियों का हिन्दी पर प्रभाव मुस्लिम संस्कृति के भारत में प्रवेश होने से ही पड़ा। बारहवीं शती के आक्रमणों और मन्दिरों को लूटने का जो परिणाम हुआ उसका प्रभाव हिन्दू सन्तों पर भी पड़ा। इस्लाम की प्रतिष्ठा हो जाने पर अनेक हिन्दू-मुस्लिम सन्त ऐसे थे जिन्होंने दोनों के भेदभाव को मिटाने का सत्प्रयास किया। सामाजिक परिस्थिति - सामाजिक स्थिति में परिवर्तन तीव्रता से हो रहा था। जातीय धर्म का प्रचलन था। ब्राह्मण और किसान भी सेना में भरती होते थे। ऊँची जाति के लोगों में सदाचार उच्चस्तर का था। उच्च कुल की स्त्रियाँ शासन में भाग लेती थी। दक्षिण के राजघरानों की स्त्रियाँ संगीत और नृत्य में अधिक कुशल थीं। वे सार्वजनिक प्रदर्शन में भी भाग लेती थीं। राजकुमारियों को साहित्य और ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। इस युग में राज्यसेवा की अपेक्षा व्यापारी या किसान होना प्रतिष्ठा का प्रसंग होता था। प्रत्येक वर्ग अनेक जातियों-उपजातियों में विभक्त हो जाने से भेद-भाव निरन्तर बढ़ रहा था। फलतः समस्त जातियाँ शिथिल हो जाने के कारण मुसलमान आक्रान्ताओं का सामना न कर सकीं। प्रधानत: प्रत्येक वर्ग स्मृति-प्रतिपादित धर्म का ही अनुष्ठान करता था किन्तु ब्राह्मण अपने पुरोहित कर्म के अतिरिक्त अन्य वर्गों के पेशे को भी स्वीकार करता था और क्षत्रिय भी अपने कर्त्तव्य के साथ-साथ शास्त्रचिन्तन में लीन था। अनेक राजपूत शासक अपने बल-पराक्रम के साथ-साथ विद्या और पाण्डित्य में भी विख्यात हुए। अनेक राजाओं ने शस्त्र और शास्त्र दोनों में समान रूप से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। भोज, गोविन्दचन्द्र, बल्लालसेन, लक्ष्मणसेन,

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