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अपभ्रंश भारती 13-14 का भाई विभीषण भी अपने रुदन का कारण रावण के अयश एवं मनुष्य शरीर की अनश्वरता को ही ठहराता है -
एण सरीरे अविणय-थाणे। दिट्ठ-ण?-जल-बिन्दु-समाणे॥ 77.4.2 ।।
- यह मनुष्य शरीर अविनय का स्थान हैं, जल की बूँद के समान देखते-देखते जल जाता है।
वियोग-ज्वाला से सन्तप्त शरीर राम भी जरा-जन्म और मृत्यु-भय से परिचलित संसार-चक्र को निस्सार मानते हैं। रावण के अग्नि-संस्कार के रूप में भी कवि पञ्चभौतिक देह की नश्वरता प्रतिपादित करता है मानो आग भी अपनी काँपती हुई शिखा से कह रही हो
रे रे जण णीसारउ विट्टलु खलु संसारउ ।
दरिसिय-णाणावत्थउ दुक्खा सु वि गत्थउ॥ 77.14 ।। " - अरे-अरे लोगों, यह संसार क्षणभंगुर और निस्सार है। इसमें नाना अवस्थाएँ देखनी • पड़ती हैं, यह दुःख का आवास है।
काल का प्रभाव एवं आयु की अनित्यता सर्वविदित है। कवि स्वयंभूदेव महानाग के रूपक की आयोजना द्वारा महाकाल एवं उसकी प्राणग्राहिणी शक्ति का स्वरूप इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं -
विसमहों दीहरहों. अणिट्ठियहों। तिहुयण-वम्मीय-परिट्ठियहाँ। को काल - भुयङ्गहों उव्वरइ।
जो जगु जें सव्वु उवराङ्घरइ । के वि गिलइ गिलेंवि के वि उग्गिलइ कहि मि जम्मावसाणे मिलइ॥
x तहों को वि ण चुक्कइ भुक्खियहाँ काल-भुअङ्हों दूसहहों। जिण - वयण - रसायणु लहु पियहाँ जें अजरामरु पउ लहहाँ ।।78.2.।।
- इस त्रिभुवनरूपी वन में महाकालरूपी महानाग रहता है, विषम, विशाल और अनिष्टकारी; उससे कौन बच सकता है! वह संसार से सबका उपसंहार करता है, उसकी जहाँ कहीं भी दृष्टि जाती, वहाँ-वहाँ मानो विनाश नाच उठता। किन्हीं को वह निगल जाता, और निगल कर उगल देता, किसी से उसकी भेंट जीवन के अन्तिम समय होती।
- उस भूखे और असह्य कालरूपी महानाग से कोई नहीं बचता। इसलिए जिनवचन-रूपी रसायन को शीघ्र पी लो जिससे अजर-अमर पद पा सको।
केवल जिन-वचनरूपी रसायन के पान से ही अजर-अमर पद पाया जा सकता है।