________________
40
अपभ्रंश भारती 13-14 राजा द्रोणघन की पुत्री विशल्या के स्नान-जल से अयोध्यावासियों के व्याधिमुक्त हो जाने पर भरत शाश्वत मोक्ष के स्थान सिद्धकूट जिन-मन्दिर में जाकर त्रिलोकचक्र के स्वामी अरहन्त भगवान् की वन्दना करते हैं। जिन-वन्दन के बाद वे महामुनि-वन्दन करते हैं और कालान्तर में तपश्चरण स्वीकार कर प्रव्रजित होते हैं। ये महामुनि दस प्रकार के धर्म की दिशाएँ बताते, दुस्सह परिषहों, पाँच महाव्रत का भार सहते, तप-गुण-संयम और नियम का पालन करते, तीन गुप्तियों के धारणकर्ता, शान्तिशील, समस्त कषायों से दूर, गर्मी में आतापनी शिला पर तप करनेवाले, भयंकर मरघटों में वीरासन और उक्कुड आसनों में ध्यान मग्न रहनेवाले हैं -
जिणु वन्दंवि वन्दिउ परम-रिसि ।
जें दरिसिय-दसविह-धम्म-दिसि ॥ 68.6.1 ।। युद्ध में अपनी विजय सुनिश्चित करने एवं बहुरूपिणी विद्या की सिद्धि के लिए रावण शान्तिनाथ मन्दिर में जाकर ध्यान, भाव-पूजा एवं द्रव्य-पूजा दोनों करता है -
पट्टणे घोसण देयि जीव अट्ठ दिवस मम्भीसमि ।
अच्छमि झाणारूदु वट्टइ सन्तिहरु पईसमि ॥ 70.11.10 ।।
- सारे नगर में मुनादी पिटवा दी गयी कि कोई डरे नहीं, और आठ दिन की बात है, मैं ध्यान करने जा रहा हैं। अब मैं शान्तिनाथ मन्दिर में जाकर ध्यान करूँगा।
__अविचल और भारी भक्ति से भरा हुआ प्रत्येक लंकावासी निशाचर जिन-पूजा करता है- 'घरें घरें पडिमउ अहिसारउ।' 71वीं सन्धि के 1 से 11 तक के समस्त घत्ता और पंक्तियाँ जिन-पूजन से सम्बद्ध हैं। वे शिव हैं, जटा-जूटधारी होकर भी जटाओं को उखाड़े डालते हैं -
परं परमपारं सिवं सयल-सारं। जरा-मरण-णासं जय- स्सिरि-णिवासं ॥
अग्गएँ थुणे वि जिणिन्दहों भुवणानन्दहों महियले जण्णु-जोत्तु करें वि। णासग्गाणिय-लोअणु अणिमिस-जोअणु थिउ मणे अचलु झाणु धरे वि॥ 71.11.॥
- हे श्रेष्ठ परमपार, हे सर्वश्रेष्ठ शिव, आपने जन्म, जरा और मृत्यु का अन्त कर दिया है। इस प्रकार भुवनानन्ददायक जिनेन्द्र की स्तुति कर, धरती-तल पर रावण ने नमस्कार किया, अपनी आँखों को नाक के अग्रबिन्दु पर जमाकर अपलक नयन होकर उसने मन में अविचल ध्यान प्रारम्भ कर दिया।
संसार-चक्र की निस्सारता पर केवल मुनिगण ही अपने विचार नहीं रखते अपितु रावण