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अपभ्रंश भारती 13-14 तो ऐसे हैं जैसे हाथी के कुम्भ ही हों। दन्तावलि मानो अनार के दानों का अनुसरण कर रही हो। नासिका की उन्नति को सहन न करके ही उसके अधर ने क्रोध की लालिमा धारण की है। उसके श्वेत और कृष्ण नयन-तारे ऐसे शोभा देते हैं मानो केतकी पत्र पर दो बड़े-बड़े भौरे आ बैठे हों। कुटिल भौंहें ऐसी लगती हैं मानो मदन ने अपनी धनुर्यष्टि धारण की. हो। भौंरों के. समान काले केश सिर पर लहलहाते ऐसे प्रतीत होते हैं मानो उसके मुख-चन्द्र के भय से अन्धकार वहाँ हिलकर काँप रहा हो' -
..........। णहरूवइँ रवि ससि सरिय णाइँ॥ सारउ सरीरु इच्छंतियाए। इह सारिउ जंघउ कयलियाए । करिराएँ मण्णेवि करु ण चंगु। णं सेविउ मेरुहि आहि तुंगु॥ सुरगिरिणा गणियउ कढिण एह। अणुसरिय णियंवहो ललियदेह ॥ तहि लिहियई पीणुण्णयथणाइँ। णं कुंभिहि कुंभइँ णववणाइँ॥ दंतावलि सोहइ विप्फुरंति । णं दाडिमवीयहँ अणुहरंति ।। णासहे उण्णइ असहंतएण । रत्तत्तणु धरियउ अहरएण ।। सियकसण नयण सोहंति तार । णं केययदलि गय भमर तार ॥ अइकुडिली भउहावलि विहाइ। धणुलट्ठि व मयणें धरिय णाइँ॥ सोहा महग्घु भालयलु भाइ। अद्धिंदु व लग्गउ सहइ णाई।।
अलिणीलकेस सिररुह घुलंति । मुहइंदुभयइँ णं तम मिलंति ।।1.16।।
अन्तिम अर्द्धाली के उत्तरांश में 'मुहइंदुभयइँ णं तय मिलंति' के द्वारा तो सौन्दर्य का गत्यात्मक रूप जैसे चित्रित हो गया है।
श्मशान का वीभत्स-चित्र इसी सन्धि के 17 वें कड़वक में पूर्णतः रूपायित हो गया है (1.17.4-10)। तीसरी सन्धि में युद्ध का यथार्थ बिम्ब बड़ा आकर्षक तथा गत्यात्मक-सौन्दर्य से पुष्ट है
कुंताइँ भज्जंति। कुंजरइँ गज्जंति॥ रहसेण वगंति। करिदसणे लग्गंति ॥ गत्ताइँ तुटुंति। मुंडाइँ फुटुंति ॥ रुंडाइँ धावंति। अरिथाणु पावंति ॥ अतांइँ गुप्पंति । रुहिरेण थिप्पंति॥
हड्डाइँ मोडंति। गीवाइँ तोडंति ॥3.15 ।। . - भाले भग्न हो रहे हैं, कुञ्जर गरज रहे हैं, योद्धा वेग से बढ़ रहे हैं, हाथी के दाँतों