Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 90
________________ 77 अपभ्रंश भारती 13-14 में संघर्ष छिड़ जाता है। इस संघर्ष में इच्छाएँ दब तो जाती हैं पर वे नष्ट नहीं होतीं । वे अचेतन (गूढ ) मन की गहराइयों में चली जाती हैं और ग्रन्थि बनकर बैठ जाती हैं। वे ग्रन्थियाँ चरित्र में विकृति उत्पन्नकर मनुष्य को रुग्ण, विक्षिप्त, छद्मी या भ्रष्ट बना देती हैं। इच्छाओं के दमन का परिणाम हर हालत में विनाशकारी है। इसलिये फ्रायड ने दमन का पूरी तरह से निषेध किया है और उन्मुक्त काम भोग की सलाह दी है। किन्तु उसके द्वारा सुझाई गई यह दवा रोग से भी अधिक भयंकर है। " 'गीता' में भी कहा गया है कि जो मूढात्मा इन्द्रियों को बलपूर्वक विषय-भोग से वंचित रखता है वह मन ही मन विषयों का स्मरण करता रहता है। इस प्रकार वह मायाचारी बन जाता है - कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार स उच्यते ।।3.6.।। पण्डित टोडरमलजी ने भी क्षमता के अभाव में जो बलपूर्वक उपवास आदि किया जाता है उसके पाँच दुष्परिणाम बतलाये हैं 1. क्षुधादि की पीड़ा असह्य होने पर आर्त्त ध्यान उत्पन्न होता है । 2. मनुष्य प्रकारान्तर से इच्छातृप्ति की चेष्टा करता है, जैसे- प्यास लगने पर पानी तो न पिये किन्तु शरीर पर जल की बूँदें छिड़के । पीड़ा को भुलाने के लिए जुआ आदि व्यसनों में चित्त लगाता है। हो जाता है। उपवासादि की प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर भोजनादि में अति आसक्तिपूर्वक प्रवृत्त होता है | 20 इन्द्रिय- दमन के हानिकारक प्रभाव होते हुए भी जैन आचार संहिता में इन्द्रिय- संयम At आवश्यक बतलाया गया है। 'जसहरचरिउ' में कवि ने गृहस्थ-धर्म के परिपालन हेतु पाँचों इन्द्रियों को और मन को वश में करने हेतु निर्देशित किया है - 3. 4. 5. प्रतिज्ञा - - च्युत दुद्धरु होइ धम्मु अणगारउ, लइ परिपालहि तुहुँ सागारउ । अणलियगिर जीवहँ दय किज्जइ, परधणु परकलत्तु वंचिज्जइ । अणिसाभोयणु, पमियपरिग्गहु, मणि ण णिहिप्पड़ लोहमहागहु । महुमइरामिसु पंचुंबरिफलु, णउ चक्खिज्जइ कयदुक्कियमलु । किज्जइ दसदिसपच्चक्खाणु वि, भोउवभोय- भुत्तिसंखाणु वि । मइरक्खणु अवरु वि सुदसवणु वि, पाउसकालि गमणवेरमणु वि । जीवाहारु जीउ ण धरिज्जइ, णियपहरणु वि कासु वि दिज्जइ ॥13.30.8-14॥

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