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अपभ्रंश भारती 13-14 धर्म का प्रचार-प्रसार अगर प्रतिबद्ध दृष्टि से न किया जाय तो वहाँ सैद्धान्तिक क्षरण भी होने लगता है; क्योंकि जब हम किसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर कोई कार्य करते हैं तो वहाँ पर सन्दर्भो का निहितार्थ स्पष्ट होता है किन्तु धर्म अगर सामाजिक प्रक्रिया के अन्तर्गत कोई कृत्य या प्रक्रिया है तो उससे लोक को प्रभावित होना है और यह प्रभाव उभयात्मक है, कृति और कृतिकार पर भी लोक का प्रभाव देखा जा सकता है। डॉ. गोविन्द रजनीश का मानना है कि - “जैन आख्यात्मक फागु, जैन आख्यानों को उपजीव्य बनाकर लिखे गये हैं। इस परम्परा में दो ही आख्यानों की गणना की जा सकती है -
1. नेमिनाथ-राजीमती और
2. स्थूलिभद्र-कोशा, ये दोनों ही लोक-विश्रुत आख्यान हैं।" ___ डॉ. रामसिंह तोमर ने 'प्राकृत अपभ्रंश साहित्य' (पृष्ठ 224) में यह जानकारी दी है कि- “रास, चर्चरी और ‘फागु' तीनों ही नामों से अपभ्रंश और प्राचीन गुजराती में रचनाएँ मिलती हैं ------- फागु आदि का काव्य-रस से हीन रूप चलता रहा। काव्य में भी इस परम्परा के वास्तविक स्वरूप को भूलकर कवि लोग राजाओं के चरितों की रचना करने लगे, यह चारण काव्य का दूसरा रूप है।"
काव्य-रस से हीनरूप चारण काव्य का दूसरा रूप भी हो सकता है क्या ? मेरी समझ में नहीं आता कि इस तरह की मान्यताओं से विद्वान् किस्म के चिन्तक आखिर कहना क्या चाहते हैं ? जैन फागु ग्रन्थों पर धार्मिकता का आरोप लग सकता है परन्तु काव्य-रस से हीन कोई साहित्यिक काव्य-परम्परा (चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो अगर समाज में रची जा रही है तो) नहीं चल सकती। जैन फागु-वर्णनों में धार्मिकता के साथ ऐहिकता का इतना अधिक मिश्रण है कि कभी-कभी तो पाठक को भी भ्रम होने लगता है कि कहीं शृंगार वर्णन तो नहीं हो रहा है -
ऋतु वसन्त नव यौवनि यौवनि तरुणी वेश । पापी विरह संतापइ तापइ पिउ परदेश ॥ वनसपति सवि मोहरी रे, पसरी मयणनी आण।
विरही नई कहंउ कहंउ करइ कोयल मूंकइ बाण ॥ - अर्थात् वसन्त नये रूप में है, युवती भी तरुणी है। प्रियतम परदेश गया हुआ है। वसन्त के आगमन से कामदेव की शान बढ़-सी गयी है। विरहियों के लिए कोयल 'कहाँ हैकहाँ है' कहकर बाण छोड़ रही है (प्रियतम के लिए)।
ते साजन किम बीसरइ जस गुण वसिया चिंति।
ऊंध मांहि जु वीसरइ सुहुंणा मांहि दीसंति॥' - प्रियतम जब हृदय में बसा हुआ है तो भला किस तरह से विस्मृत किया जा