________________
'87
अपभ्रंश भारती 13-14
तउ अवतरिउ रितुपति तपति सुमन्मथ पूरि।
जिमि नारीय निरीक्षिण दक्षिण मेंल्हइ सूरि ॥ (नेमिनाथ फायु) अर्थात् सूर्य ने दक्षिण-दिशा का परित्याग कर दिया है जिस तरह से किसी आश्रयहीन नारी का परित्याग कर दिया जाता है।
प्राचीन फागु संग्रह में डॉ. भोगीलाल सॉडेसरा का मानना है कि वसन्त ऋतु में मस्ती के क्षणों में गाये जानेवाले गीतों को 'फागु' का नाम दिया गया होगा और अब साहित्यिक रूप प्राप्त करने पर अलंकृत शैली इसकी खास विशेषता बन गयी।
समरकृत नेमिनाथ फागु में चन्द्रमा, कोयल आदि के लौकिक और पारम्परिक उपमानों के जरिये राजीमती की विरह-व्यथा और वेदना को अभिव्यक्ति मिली है। 'स्थूलिभद्र फागु' के रचयिता मालदेव ने तो परम्परा और लोकतत्त्वों का खासा सहयोग लिया है -
वेश कुनारि जुआरीइं दूरजन अतिहिं विगोवइ रे। अगिनि सांप राजा योगी, कबहुँ मीत न होवइ रे॥ सो कंचण क्या पहिरीइ, जु कानेहुँ तुं तोरइ रे।
जइ परमेस्वर रूसीइ, नाऊ पालि कूटि रे॥ 'स्थूलिभद्र कोशा प्रेम विलास फागु' में ऐहिक सन्दर्भो पर जिस तरह से ज़ोर दिया गया है वह कितना स्वाभाविक और लौकिक है देखा जा सकता है - .
सूकइ सरोवर जल विना, हंसा किस्युरे करेसि ।
जस घरि गमतीय गोरडी, तस किम गमइ रे विदेस॥ अर्थात् अगर जल बिना सरोवर सूख गया हो तो हंस क्या करेगा ? इसी तरह प्राप्त पूर्ण यौवना को परित्याग करके अगर प्रियतम प्रवास पर जा रहा है तो उसे क्या लाभ होगा ?
जाहिर है जहाँ पर जैन कवियों ने लौकिक लोकाचार को सामने रखा वहाँ पर साहित्यिकता के श्रेष्ठ अंश हमें दिख जाते हैं। डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय ने फागु काव्यों की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है' - ___ वसन्त ऋतु का मादक वर्णन।
लय, ध्वनि, नाद-सौन्दर्य के साथ वाद्य की अनुगूंज पर गाया और नाचा जाना। संयोग और वियोग शृंगार की मार्मिक अभिव्यक्ति। कामदेव की विशेष आराधना । 'भास' में विभक्त कर छोटी-मोटी कथा देकर खण्डकाव्य का स्वरूप प्रदान कर देना। दोहा, रोला, सोरठा तथा फागु छन्दों का प्रयोग।