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अपभ्रंश भारती 13-14 सकता है ! अर्धसुप्तावस्था में तो वह विस्मृत हो सकता है पर नींद के आते ही स्वप्न में दिखायी दे जाता है।
साहित्यिक दृष्टि से फागु काव्य में विरह का भाव-सम्प्रसरण किसी भी तरह से हीन नहीं माना जायगा। समधुर कृत 'नेमिनाथ फागु' में कवि ने एक धर्म-प्रचारक के रूप में जब स्वयं को प्रस्तुत किया है तो नेमिनाथ को मुक्ति का दाता कहा है किन्तु जहाँ पर ऐहिक सन्दर्भ उसके सामने आये हैं और एक पति के रूप में नेमिनाथ स्वयं को प्रस्तुत करने में असमर्थ (जहाँ पर) होते है वहाँ कवि उन्हें नपुंसक तक कहने में संकोच नहीं करता -
अरे ऊरहि ऊरहि आहणइ, ते केमे ताणति ।
अरे काहउं नेमि नपुंसको, एक रमणि न करंति॥ इसी तरह समरकृत 'नेमिनाथ फागु' में भी विरह की करुण दशाओं का जो मार्मिक चित्रण मिलता है वह प्रकृति-प्रेरित है। विरहिणी की मानसिक दशा और प्रकृति का असहयोग जिस तरह से वर्णित किया गया है वह पारम्परिक ही है, वह कोयल हो या चन्दा दोनों राजीमती की मानसिक दशा को नहीं समझते -
कोयल करई टहूकडा बइठी अंबला डालि। विरह संभारिय पापिणी, जाजई यादववालि ॥
xxx चन्दा कहि न संदेसडउ, वीनतडी अवधारि।
शुद्धि पूच्छउं यादव तणी, तू जाईसि गिरनारि ॥ जैन धार्मिकता की आड़ में साहित्यिक आलोचना ने जो निष्कर्ष अपभ्रंश की समृद्ध परम्परा को नकारने में लगाया उसकी प्रतिक्रिया में दूसरे वर्ग ने अति उत्साह दिखाया और मध्यकाल की समृद्ध परम्परा पर (धार्मिक परम्परा जो सामाजिक पहले थी) प्रश्नवाचक लगाने की बात कही; वस्तुतः होना यह चाहिए कि किसी परम्परा या धार्मिक साहित्य से उसका सामाजिक सत्वांश ग्रहण किया जाय उसमें कोई पूर्वाग्रह न रहे। अधिकतर जैन फागु काव्यों की विषय-वस्तु निर्धारित है। मात्र दो उपाख्यानों को आधार बनाकर दृष्टि की कितनी भिन्नता दिखायी जा सकती है ! पर वहाँ भी जहाँ तक लोक में कवि जा सका है वहाँ वर्णन सजीव
और आकर्षक हो उठा है, 'पउमचरिउ' फागु काव्य तो नहीं है पर वहाँ भी जिस तरह से बसन्त का वर्णन हुआ है. वह देखते बनता है -
सुप्पहाय- दहि- अंस- रवण्णउ । कोयल-कमल-किरण-दल-छण्णउ॥ जयहरें पइसारिउ पइसन्तें।