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अपभ्रंश भारती 13-14 है। वाल्मीकि की रामायण में इस नगरी की जो महिमा है, वह प्राकृत और अपभ्रंश के वाङ्मय में भी सुरक्षित है।
प्राकृत प्रापर नेम्स, पृष्ठ 3 सं. मेहता एवं चन्द्रा, ये नाम विभिन्न कारणों से रखे गए प्रतीत होते हैं। जैन मान्यतानुसार अयोध्या आदि तीर्थ एवं आदि नगर है। यहाँ 7 कुलकरों तथा ऋषभदेव आदि 5 तीर्थंकरों एवं महावीर स्वामी के नवें गणधर ‘अचल भ्राता' (अयलो च कोसलाए कोसला नाम अयोज्झा ..........।) का जन्म हुआ था। इसीलिए इस नगरी को जैन तीर्थ के रूप में मान्यता मिली। 'अष्ट चक्रानव द्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्यमयकोषः स्वर्गज्योतिषावृतः॥' (अथर्ववेद, दशम स्कन्ध)
- यह देवताओं की नगरी जो आठ चक्र और नौ द्वारों से शोभित है, जिसका स्वर्ग के समान हिरण्यमय कोश दिव्य ज्योति से आवृत है। ‘रुद्रयामल' ग्रन्थ में इस नगरी को विष्णु जी का मस्तक बताया गया है और वशिष्ठ संहिता' में इसे चिन्मय (अनादि) कहकर इसके आठ नाम गिनाये गये हैं। पद्मपुराण, आचार्य रविषेण, 20.169.170 जैन-साहित्य में अयोध्या और साकेत इन दोनों को एक ही नगर माना गया है। हरिभद्रसूरि कृत 'समराइच्चकहा' में उक्त दोनों नामों से इस महानगरी का उल्लेख हुआ है। 'आवश्यक नियुक्ति' (दीपिका, पृष्ठ 59) के अनुसार यहाँ के निवासी अत्यन्त विनम्र स्वभाव के थे अर्थात् विनीत एवं सभ्यजनों का निवास होने के कारण इसका 'विनीता' नाम पड़ा। 'ततः इन्द्र आह साधु विनीताः पुरुषाः .........।' उक्त नामों में 'अवज्झा' का अधिक महत्त्व है, क्योंकि इसी से हिन्दी का 'अवध' बना है। यद्यपि अवध अर्वाचीन शब्द है, फिर भी 'अवध' से उसे तत्सम माना जा सकता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ जीवों का वध न होता हो, वह भूमि अवध है। यहाँ के निवासी अपने-अपने कार्यों में कुशल थे, अत: यह नगरी 'कुशला' नाम से प्रसिद्ध हुई। वह नगरी अनेक भव्य भवनों से सुशोभित थी, जिसकी ऊँची फहराती हुई ध्वजाएँ स्वर्गलोक के भवनों को आमन्त्रित करती प्रतीत होती थीं। अत: उसका 'साकेत' नाम पड़ा।