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अपभ्रंश भारती 13-14 अनावश्यक भोग की आदतों से निवृत्ति पाकर इन्द्रियों को अनावश्यक विषय-रागों से बचाया जा सकता है। यही इन्द्रिय-संयम या इन्द्रिय-दमन है। अनावश्यक इच्छाओं से मुक्ति पाने के लिए इन्द्रिय-संयम अपरिहार्य है।
इन्द्रिय-संयम के द्वारा शरीर में उत्पन्न होनेवाली अस्वाभाविक एवं अनावश्यक इच्छाओं को नियन्त्रित किया जाता है। क्योंकि अनावश्यक इच्छाओं की उत्पत्ति से आर्तभाव होता है और उनका पोषण शारीरिक व्याधियों का जन्मदाता है। अतएव नियन्त्रित इच्छाएँ शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य एवं शान्ति प्रदान करती है। कर्म सिद्धान्त के अनुसार मिथ्यात्व, कषाय, असंयम तथा इन्द्रियविषयों के सेवन से जीवों के कर्मों का आस्रव (आगमन) होता है इसे सम्यक जीवों के ऊपर दयाभाव तथा इन्द्रिय-अनासक्ति के द्वारा रोकना चाहिए
मिच्छत्तकसायासंजमेण, आसवइ कम्मु करणुन्भवेण।
सम्मतिं जीवदयागमेण, इंदियरइसंगविणिग्गमेण ॥4.15.3-4 ।। कृति में शारीरिक इच्छाओं/उत्तेजनाओं को क्रमशः नियन्त्रित करने का भी निर्देश है।" शक्ति के अनुसार जितने अंश में रागभाव के विगलित होने पर चारित्रिक क्षमता उत्पन्न होती है, उतने अंश में इन्द्रिय-विषयक उत्तेजनाओं को नियन्त्रित करना चाहिये। क्रमशः इच्छाओं को विसर्जित करने से नाड़ीतन्त्रीय स्रोत निष्क्रिय हो जाता है और चारित्रिक विकृतियों के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। अतः इच्छाओं के विसर्जन में इन्द्रिय-संयम उतना ही मनोवैज्ञानिक . साधन है जितना विषयों से वैराग्य ।
'जसहरचरिउ' में कथा व उपदेश के माध्यम से निरूपित इन्द्रिय-संयम की और उन्मुक्त व अनावश्यक भोगों से बचने की प्रेरणा दी गई है। इसका लाइलाज बीमारियों से बचने, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इससे भोगोपभोग-सामग्री के संचय की वृत्ति भी नियन्त्रित होती है तथा अन्य को भी उसकी प्राप्ति के सहज अवसर मिल जाते हैं। इन्द्रिय-सयंम, अहिंसादि वृत्तियाँ मानव को स्वावलम्बी बनाती हैं। यह आत्मोत्थान की यात्रा के पथिक के लिए श्रेष्ठतम सम्बल है।
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जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 314 हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 1993 पृष्ठ - 213 जसहरचरिउ, 2.27.15, महाकवि पुष्पदन्त, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, सन् 1972