Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 91
________________ अपभ्रंश भारती 13-14 अनगार धर्म दुर्धर होता है अतः तू सागार / गृहस्थ धर्म को ग्रहण कर / पालन कर । वाणी मिथ्यात्व से रहित होनी चाहिए । जीवों पर दया करना चाहिये । परधन और परस्त्री से बचना चाहिए। रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए । धन-सम्पत्तिरूप परिग्रह भी सीमित होना चाहिए । मधु, मदिरा, मांस और पाँच उदुम्बर फल (वट, पीपल, पाकर, उमर और कठूमर) को भी नहीं चखना चाहिए। ये पापरूपी मैल उत्पन्न करते हैं । दसों दिशाओं में प्रत्याख्यान अर्थात् गमनागमन की सीमा कर लेना चाहिये । भोगों और उपभोगों का संख्यान अर्थात् निश्चित मात्रा और खाने की संख्या निर्धारित करनी चाहिए। मन को वश में रखना चाहिए। शास्त्र श्रवण करना चाहिए । वर्षाकाल में गमनागमन नहीं करना चाहिए । जीव ही जीव का आहार है, ऐसी धारणा रखकर जीव-हिंसा नहीं करना चाहिये । हिंसा के साधन अपने अस्त्रशस्त्र अन्य को नहीं देना चाहिये । 78 कृति में प्रत्येक माह की अष्टमी - चतुर्दशी को उपवास करने हेतु भी निर्देशित किया है। उपवास की शक्ति न होने पर कांजी * का भोजन या नीरस भोजन करना चाहिये। तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करने, कषायों से बचने एवं जिनालय या एकान्त समय बिताने को कहा है। 21 ये क्रियाएँ मनुष्य को उतने समय इन्द्रिय-विषयों से विरत करती हैं। इन्द्रिय-दमन हानिकारक होते हुए भी आवश्यक क्यों है ? विषयों से वैराग्य होने पर इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं तो इन्द्रिय-संयम का औचित्य क्या है ? इच्छाओं के विसर्जन में इन्द्रिय- संयम की मनोवैज्ञानिक भूमिका क्या है ? यहाँ इस पर विचार किया जा रहा है। सामान्य धारणा यह है कि इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति मनोगत विषय-वासना पर आश्रित है । मन में विषयों के प्रति आसक्ति से ही इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं और इन्द्रियाँ अपने - अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं। अतएव मन के विषयों से विरक्त हो जाने पर इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं । अतः इन्द्रियों पर अलग से निग्रह आवश्यक नहीं है। 22 पर यह धारणा ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छाएँ मात्र विषयासक्ति से ही नहीं वरन् इन्द्रियव्यसन या भोगाभ्यास से भी उत्पन्न होती हैं। यह एक स्नायुतंत्रीय प्रक्रिया है। मूल रूप से इच्छायें विषय-राग से ही उत्पन्न होती हैं किन्तु तृप्ति के लिए जब इन्द्रियाँ विषय भोग करती हैं तब नाड़ी - तन्त्र में भोग का एक संस्कार पड़ता है। यह संस्कार जब बार-बार आवृत्त होता है तब वह व्यसन या लत में परिणत 'जाता है। परिणामस्वरूप इन्द्रियों में सम्बन्धित विषय के भोग की इच्छा अपनेआप उत्पन्न होने लगती है। जिस समय जिस वस्तु के भोग का अभ्यास इन्द्रियों को हो गया है उस समय उस वस्तु की प्राप्ति के लिए एन्द्रियक नाड़ी तंत्र में उद्दीपन होता है। इससे शरीर और मन में व्याकुलता उत्पन्न होती है जिससे मुक्त होने के लिए उस वस्तु का भोग आवश्यक हो जाता है। इस उद्दीपन को 'तलब' कहते हैं। उदाहरणार्थ- जिन्हें बीड़ी, सिगरेट, * माँड, दही या फटे हुए दूध का पानी

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