Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 84
________________ अपभ्रंश भारती 13-14 अक्टूबर 2001-2002 करकंडचरिउ की प्रमुख काव्यरूढ़ि-मंगलाचरण - विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया __ अपभ्रंश प्राकृत की उत्तराधिकारिणी के रूप में समादृत भाषा है।' छठी शती से लेकर चौदहवीं शती तक अपभ्रंश के अनेक जैन मुनि और आचार्य कवि हुए हैं। इन्होंने वेसठ शलाका पुरुषों तथा उत्तरवर्ती यशस्वी राजा-महाराजाओं के चारुचरित्रों को लेकर अपभ्रंश वाङ्मय को अभिवृद्ध किया है। बारहवीं शती के अपभ्रंश के सशक्त कविर्मनीषी मुनि श्री कनकामर द्वारा प्रणीत 'करकंडचरिउ' बहुचर्चित चरित काव्य है। करकंडचरिउ की कथा दश संधियों में विभक्त है। इस काव्यकृति में काव्यशास्त्रीय गुणों का पुष्कल प्रयोग हुआ है। कवि-समय और काव्यरूढ़ि के प्रयोग अपभ्रंश काव्य की अपनी विशेषता है। यहाँ अपभ्रंश के ‘करकंडचरिउ' की प्रमुख काव्यरूढ़ि-‘मंगलाचरण' पर संक्षेप में चर्चा करना हमारा मूल अभिप्रेत है। काव्यरूढ़ि अथवा कथानकरूढ़ि साहित्यिक प्रयोगों की परिपाटी के रूप में मानी जाती है। कथानकरूढि को ही अभिप्राय कहा गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कथानकरूढि नाम देकर अभिप्राय को सार्थक तथा सोद्देश्य बनाया है। वस्तुतः कथानक- रूढ़ियाँ कथानक के निर्माण में सहायक होती हैं। रचयिता इन्हीं के सहारे चलता हुआ कथा को गति प्रदान करता है। __ अपभ्रंश की प्रबन्धमूलक काव्याभिव्यक्ति में ‘मंगलाचरण' एक सुपरिचित काव्यरूढ़ि है। मंगलाचरण एक यौगिक शब्द है - 'मंगल' और 'आचरण' से मिलकर इस शब्द का .

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