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अपभ्रंश भारती 13-14
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गठन होता है । 'मंगल' मंगलाचरण का पूर्व और अपूर्व रूप है । 'मंगल' शब्द का अर्थ हैपुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य। ये सभी शब्दार्थ 'मंगल' शब्द के पर्यायवाची हैं।"
पाप-विनाशक तथा पुण्य - प्रकाशक भावमंगल कहलाता है, नमस्कार आदि कहलाता है- द्रव्यमंगल । निर्विघ्नरूप से शास्त्र की अथवा अन्य लौकिक कार्यों की समाप्ति एवं उसके फल की प्राप्ति के लिए सब कार्यों के आदि में तथा शास्त्र के मध्य और अन्त में मंगल करने का आदेश है ।"
यदि 'मंगल' शब्द को यौगिक के रूप में ग्रहण करें तो 'मं' तथा 'गल' शब्दों के योग से 'मंगल' शब्द का गठन होता है। मं शब्द का अर्थ है मिथ्यात्व - मल और गल शब्द से तात्पर्य है- गलाना, विनष्ट करना, घातना, दहन करना । अस्तु, जो मिथ्यात्व - मल को गलाता है वह है- 'मंगल' ।' मंगल शब्द इस प्रकार भी विग्रह किया जा सकता है - मंग और ल के सुयोग से मंगल शब्द का गठन होता है। मंग शब्द का अर्थ और अभिप्राय हैउल्लास-उत्साह, सुख और पुण्य; और ल शब्द का अर्थ है- लाना। इस प्रकार जो उत्साहउल्लास, सुख और पुण्य लाता है, वस्तुतः वह है- 'मंगल' । '
काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण प्रथा और प्रचलन अपभ्रंश के प्रारम्भ से ही परिलक्षित है। अपभ्रंश के अधिकांश रचयिता वस्तुत: जैन धर्मावलम्बी हैं और जैन संस्कृति में देव, शास्त्र और गुरु को जनवंद्य अंगीकार किया गया | अपभ्रंश के महापुराण में कवि द्वारा सर्वप्रथम जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की वन्दना करते हुए उनको सब देवों में श्रेष्ठ और कामदेव को जीतनेवाला बताया गया है।' ऋषभनाथ की वन्दना के पश्चात् कवि ने सन्मतिनाथ की वन्दना व्यक्त की है ।" अन्त में कविवर सरस्वती की स्तुति गान करते हुए काव्य का प्रारम्भ करता है । " किन्तु जसहरचरिउ में कवि ने अरिहन्त देव की वन्दना की है। इसके पश्चात् वे चतुर्विंशति स्तुति को अभिव्यक्त करते हैं जिसमें सर्वप्रथम ऋषभनाथ को नमन कर शेष तेईस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है । वन्दना के उपरान्त कवि काव्य का प्रारम्भ करते हैं। णायकुमारचरिउ में किसी तीर्थंकर देव की स्तुति न करके सरस्वती वन्दना के उपरान्त काव्य का प्रारम्भ किया गया है। 12
अपभ्रंश के 'मंगलाचरण' प्रयोग की इसी परम्परा की अनुमोदना परवर्ती अपभ्रंश कविवर मुनि श्री कनकामर ने अपने करकंडचरिउ काव्य में भी की है। यहाँ 'करकंडचरिउ' काव्य में मंगलाचरण की स्थिति पर हम संक्षेप में चर्चा करेंगे।
ग्रन्थारम्भ में कविवर मुनिश्री कनकामर जिनेन्द्रदेव की वन्दना करते हुए स्पष्ट करते हैं। कि मेरे पूजनीय आराध्य देव कामदेव का विनाश करनेवाले हैं । वे वस्तुतः शिवपुरवासी हैं। पापरूपी अन्धकार का हरण करनेवाले, सूर्य के समान तेजस्वी हैं। उन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है और वे परमात्म-पद में लीन हैं -