Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 83
________________ 70 अपभ्रंश भारती 13-14 वित्थिण्ण पएसु मगहादेसु एत्थंतरे सारु सुर-मण-हारु भरहखेत्ते विक्खाउ। वित्थिण्ण पएसु मगहादेसु निवसइ देसहराउ ।। जहिँ गुरुयर गिरिवर कंदरेसु जल-झरण-वाह-झुणि-सुंदरेसु। कीलंति सुरासुर खेयराइँ णिय-णिय रमणिहिं सहुँ सायराइँ। जहिँ उटुंतिहिं अइ-णव-णवेहिं । पुंडुच्छु-वाड-जंता रवेहि। बहिरिय-सुयरंधिहिँ जणवएहिँ सुम्मइँन किंपि विंभिय गएहिँ। जहिँ अहणिसि वहहिँ तरंगिणीउ तरु-गलिय कुसुम रय-संगिणीउ । विरयंतिउ जल-विन्भमहिँ वित्तु खयरामर-मणुवहँ हरिय-चित्तु । जहिँणंदणतरु-साहय ठियाहँ समहुर-सद्दहँ कलयंठियाहँ। ' णिसुणइँ णिच्चलु ठिउपहियलोउ ण समीहइ को सुहयारि जोउ। जहिँ सरि-सरि सोहइ हंस पंति जिय-सारय-ससहर-जोन्ह-कंति। परिभवण-समुन्भव-खेयखिण्ण णं सुवण-कित्ति महियले णिसण्ण। घत्ता- तक्कर-मारीइ तहय अणीइ णिरु दीसंति ण जेत्थु। सुरपुर पडिछंदु णर णिइंदु णयरु रायगिहु तेत्थु ॥40॥ वड्डमाणचरिउ 3.1 - यहीं भरतक्षेत्र में विख्यात, सारभूत, देवों के मन को हरण करनेवाला, विस्तीर्ण प्रदेश-वाला एवं देशों के राजा के समान मगध नामका देश स्थित है। जहाँ गुरुतर पर्वतों के जल-स्रोतों के प्रवाह की ध्वनि से युक्त श्रेष्ठ एवं सुन्दर कन्दराओं में अपनी-अपनी रमणियों के साथ सुर-असुर एवं विद्याधर सादर क्रीड़ाएँ किया करते हैं, जहाँ पौंड़ा एवं इक्षु के बाड़ों में पीलन-यन्त्रों से उठते हुए अत्यन्त नये-नये शब्दों से श्रोत्र-रन्ध्र बहरे हो जाते हैं और विभ्रम को प्राप्त जनपदों से अन्य कुछ नहीं सुना जाता, जहाँ वृक्षों से गिरे हुए पुष्पों की रजकी संगवाली (अर्थात् परागमिश्रित) नदियाँ अहर्निश प्रवाहित रहती हैं, जो जल के विभ्रम से समृद्धि को प्रदान करती हैं तथा विद्याधरों, देवों एवं मनुष्यों के हृदयों का हरण करती हैं, जहाँ नन्दनवृक्ष की शाखाओं पर बैठे हुए कलकण्ठ वाले पक्षियों के मधुर कलरव पथिकजनों द्वारा निश्चल रूप से स्थित होकर सुने जाते हैं। (ठीक ही कहा गया है कि -) 'सुखकारी योग को कौन नहीं चाहता ?' जहाँ नदी-नदी अथवा तालाब-तालाब पर हंस-पंक्तियाँ सुशोभित रहती हैं, वे ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो शरदकालीन चन्द्र-ऽयोत्स्ना की कान्ति ही हो, अथवा मानो परिभ्रमण की थकावट के कारण ही वहाँ बैठे हों अथवा मानो वहाँ महीतल पर बैठकर वे सुन्दर-वर्गों में वहाँ का कीर्ति-गान ही कर रहे हों। ___ घत्ता - जहाँ तस्कर, मारी (रोग) तथा (ईति, भीति आदि) अनीति भरा भी दिखाई नहीं देती। इन्द्रपुरी का प्रतिबिम्ब तथा मनुष्यों के लिए निद्वन्द्व राजगृह नाम का नगर है। अनु. - डॉ. राजाराम जैन

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