________________
66
अपभ्रंश भारती 13-14 युद्ध के उपरान्त पिता-पुत्र का यह मिलन भी अत्यन्त स्नेहिल तथा भाव-शबल है। • ऐसे भाव-प्रवण बिम्बों की उद्भावना कवि ने अनेक स्थानों पर की है, परन्तु कहीं ऐंद्रिकता का संस्पर्श नहीं हो पाया है। भाव की पवित्रता और प्रांजलता यहाँ बरबस मन को मोह लेती है। समुद्र में युद्ध के समय जब मत्स्य करकंड का अपहरण कर लेता है, तब रतिवेगा विलाप करने लगती है -
हा वइरिय वइवस पावमलीमस किं कियउ । मइँ आसि वरायउ रमणु परायउ किं हियउ॥ हा दइव परम्मुहु दुण्णय दुम्मुहु तुहुँ हुयउ। हा सामि सलक्खण सुट्ठ वियक्खण कहिँ गयउ॥ महो उवरि भडारा णरवरसारा करुण करि। दुहजलहिँ पडती पलयहो जंती णाह धरि ॥ हउँ णारि वराइय आवइँ आइय को सरउँ।
परिछंडिय तुम्हहिँ जीवमि एवहिँ कि मरउँ॥7.11.9-16 ।। - हे नाथ, दुःख सागर में पड़ी हुई मैं एक दीन नारी हूँ। इस आपत्ति के समय मैं किसका स्मरण करूँ ? विरह-विह्वल नारी के ये शब्द भला किसे आहत नहीं करेंगे ? विरहनिरूपण की यही सार्थकता है कि सहृदय द्रवीभूत हो जाय और विरहिणी के प्रति सहानुभूति से भर जाय। परन्तु, विरह के पश्चात् जब विद्याधर-कन्या कनकप्रभा करकंड को रतिवेगा के पास ले जाती है, तब उसकी तन-मन की दशा का मनोवैज्ञानिक चित्र भावानुभूति के सौन्दर्य से जैसे दमक उठता है। खुशी से उसकी आँखों में आँसू छलक आते हैं। वह कृशांगी ऐसी चमक उठी जैसे कृष्णवर्ण सजल मेघ बिजली से चमक उठता है अथवा मयूरी सजल मेघ को देखकर नाच उठती हैं -
रइवेयइँ दिट्ठउ णियरमणु तहिं हरिसइँ बडिउ अंसुजलु।
ता विज्जु चमक्किय कसणतणु सिहिकंतएँ णं जलहरु सजलु ॥8.17.10।।
लोक-जीवन में दम्पती के मध्य का यह भाव-सौजन्य सचमुच दर्शनीय है। जैन मुनि कवि की यह लोकानुभूति उसके लोक-जीवन के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की परिचायक है। सचमुच, लोक और लोक-जीवन-संस्कृति की जितनी सटीक अनुभूति जिस कवि को होती है उसकी कविता उतनी ही भाव-प्रबल और भाव-सौन्दर्य से अभिमण्डित होती है। यहाँ ‘सिहिकंतएँ णं जलहरु सजलु' कहकर 'खुशी से नाच उठना' मुहावरे को जैसे सार्थक कर दिया है। अनुभूति का यह सौन्दर्य हृदय को छू जाता है।
जब चम्पा के उपवन में शीलगुप्त मुनि का आगमन होता है यह सुनकर करकंड तो